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________________ ( ७० } 'लेकिन मैं ऐसे हार नही मानने का । श्राखिर में भी राजा हूँ । मेरे साथ भी अनेक सेना है । मैंने वडे-बडे ऋषियो, मुनियो, ज्ञानियो को झकझोरा है । उन्हें ऐसा गिराया है कि लम्हलना भी उनका मुश्किल हो गया था ।' 'वे सब हारने वाले, गिरने वाले, कोई कायर ही थे । उन्होने मुझे वास्तविकता के साथ नही अपनाया होगा। तुम्हारा कोई न कोई जासूस उनके हृदय पटल के किसी कोने मे छिपा रह गया होगा । पर जानते हो यहा आदिनाथ के हृदय पटल पर से तुम्हारा एक-एक साथी भाग चुका है । भयकर से भयंकर जासूस भी वह देखो उधर तुम्हारे पीछे खडा "टुकर टुकर गरीवसा बना जमीन कुरेद रहा है ।' मोह चौंक गया। उसने 'पीछे फिर के देखा तो दंग रह नया | उसके सभी साथी श्रम रक्षक -- अनन्तानुबन्धी प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, सजवलन और माया, मिथ्या, निदान सभी जमीन मे घसे जा रहे थे । मोह हार चुका था । उसके पैर काप उठे थे। दिल बैठ चुका था। वह श्रव नागे न बढ सका । रत्न का मुस्करा रही थी। मोह को यो उलझन में पड़ा देख कर बोली जाओ। पीचे चले जाओ। किसी कामी, लोभी, मायाचारी और समार को भौतिकता में फले प्राणी के पास चले जायो । श्रव तुम्हे वही जगह मिलेगी । यहा नगर एक भी कदम आगे बढाया तो वह धुलि धूत्तर हो जाएगा । वैवारा मोह मोह मुँह लटकाए चला गया। सभी साथी भी भाग गए। श्रय आदिनाथ परमात्मा बनने जा रहे थे। ज्ञानावरणादिक ६३ प्रकृतिया अपने आप नष्ट हो चूकी थी । ''
SR No.010160
Book TitleBhagavana Adinath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasant Jain Shastri
PublisherAnil Pocket Books
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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