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________________ 'कायर । डरपोका • मोह गरज उठा। 'पाप तो नाराज हो गए।' 'तो और क्या तुम्हे सीने से लगाता। जो तुम्हारा आश्रय अनन्त समय से थी—जिस पर तुम्हारा अधिकार लम्बे और अतीत विगत से था प्राज उसी अधिकार को यो रो रोकर छोड रही हो । बेशरम कही की।" __ 'पर बताइए तो मालिक हम क्या करे ?' 'घबरानो नही । जव तुम मेरी शरण मे प्राही गई हो तो तुम्हारी सहायता भी की जाऐगी अच्छा यह बतानो"तुम्हारे और साथी कहीं है ? 'कौन-कौन साथी मालिक ?" 'अरे वे ही क्रोध, मान, माया, लोभ, और झूठ, चोरी, कुशील।' ___ हाँ ! हाँ । मालिक "वे सब वही आदिनाथ से दूर एक तरफ खडे खडे तुकर-तुकर देख रहे है। उनका भी बस नही चल पा रहा है। ___ 'हत्तरी की । सबके सब डरपोक ।" चलो मैं तुम्हारे आगे चलता हूँ । देखता हूँ कि प्रादिनाथ तुम्हे कैसे प्राश्रय नहीं देते ?' ____मोह बडी हैकड और ऐठ के साथ चल रहा था । छल कपट, क्रोध, मान, माया, लोभ झूठ, चोरी, कुशील, आदि दुष्परगतियां चुपके-चुपके मोह के पीछे-पीछे चल रही थी । मोह लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चला जा रहा था। उसने देखा कि एक वृक्ष के नीचे, सुन्दर शिला पर प्रादिनाथ पत्थर की मूर्ति बने शान्त और निश्चल बैठे हैवह क्षण भर के लिए ठिठक गया। ___'उसे ठिठकते देख सभी परिणतियां जो मोह के पीछे-पीछे मा रही थी "एक दम दोडकर वापिस लौट गई।" मोहने जो
SR No.010160
Book TitleBhagavana Adinath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasant Jain Shastri
PublisherAnil Pocket Books
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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