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________________ ( ३२ ) चाकर, वर्तन, कपड़ा वगैरह परिग्रहका परिमाण कर लेना कि मैं इतना रक्खूँगा, बाकी सबका त्याग कर देना, परिग्रहपरिमाण अणुव्रत है । गुणवत । गुणत्रत उन्हे कहते हैं, जो अणुव्रतोंका उपकार करे । गुणत्रत ३ हैं - १ दिग्वत, २ देशव्रत, ३ अनर्थदण्डव्रत । १ लोभ आरंभ वगैरहके त्यागके अभिप्राय से पूरव पश्चिम वगैरह चारों दिशाओमे प्रसिद्ध नदी, गॉव, नगर, पहाड़ वगैरहकी हद बॉध करके जन्मपर्यंत उस हद के बाहर न जानेका नियम करना दिग्वत कहलाता है । जैसे किसी आदमीने जन्मभरके लिए अपने आने जानेकी मर्यादा उत्तर में हिमालय दक्षिणमें कन्याकुमारी, पूर्व में ब्रह्मदेश और पश्चिममे सिन्धु नदी तक कर ली, अब वह जन्मभर इस सीमाके बाहर नहीं जायगा । वह दिखती है । २ घड़ी, घंटा, दिन, महीना वगैरह नियत समय तक और जन्म पर्यंत किए हुए दिग्व्रतमें और भी संकोच करके किसी ग्राम, नगर, घर, मोहल्ला वगैरह तक आना जाना रख लेना और उससे बाहर न जाना देशत्रेत है । जैसे जिस पुरुषने ऊपर लिखी सीमा नियत करके दिखत धारण किया है, वह यदि ऐसा नियम कर लेवे कि मैं भादोके महीने में इस शहरके बाहर नहीं जाऊँगा अथवा आज इस १ कहीं कहीं पर देशव्रतको शिक्षाव्रतों में लिया है और भोगोपभोग परिमाणव्रतको दिग्व्रत ।
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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