SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। १४६ - - गुरू आचारज उवझाय साध । तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध । संसारदेहवैराग धार । निरवांछि तपै शिवपद निहार. ॥६॥ गुण छत्तिस पचिस आठ दोस । भव तारन तरन जिहाजईस । गुरु की महिमा घरनी न जाय । गुरुनाम जपों मनव चनकाय ॥७॥ सोरठा-कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरै 'धानत ' सरधावान , अजर अमरपद भौगवै॥ ८ ॥ ॐ हीं देवशानगुरुभ्यो महाव्य निर्वपामीति स्वाहा । ------- EFTEyer~~-.. 'वीस तीर्थकर पूजा भाषा । दीप पढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थ करवीस तिन लयकी पूजा करू, मनवचतन धरि शीस ॥ १ ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थ कग! अत्र अवतरत अवतरत । संघोपट । ॐ हों विद्यमान विशतितीर्थकरा.! अन तिष्ठत तिष्ठत. 331 ॐ हों विद्यमान विंशतितीर्थकरा ! अन मम सन्निहिता भवत भवत । वषट् । इन्द्रफणींद्रनरेंद्र बंय, पद निर्मलधारी। शोभनीक संसार, सार गुण हैं अविकारी।
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy