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________________ 8* जैन ग्रन्थ-संग्रह | - .. इहभाँति अर्ध चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मधू : नरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ दोहा - वसुविधि अर्ध संजोयके, अति उच्छाद मन कीन । जासों पूजों परम पद, देवशास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्थ पद प्राप्ताये अर्धं निर्वपामिति स्वाहा ||६|| अथ जयमाला | देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार | भिन्न भिन्न कहुं आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥ १ ॥ पछडि छन्द | चकर्मकि त्रेसठ प्रकृति नाशि जीते अष्टादशदोपराशि जे परम सगुण हैं अनन्त धीर । कहवत के छयालिस गुण गंभीर ॥ २ ॥ - शुभसमवसरण शोभा अपार । शत इन्द्र नमत कर सीस धार देवादिदेव अरहन्त देव । वन्दो मनवचतनकरि सुसेच ॥३॥ जिन की धुनि है ओंकाररूप । निर अक्षरमय महिमा अनूपं । दश अष्ट महाभाषा संमेत । लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥ ४ ॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग । गणधर गंथे बारहसुअंग रात्रि राशि न हरै सो तम हराय । सो शास्त्र 'नमोचहु प्रीति ल्याय ॥ ५ ॥
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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