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________________ ३६ बड़ा जैन- प्रन्ध-संग्रह | इविधि अनेक गुण प्रगट करि, लहै सुशिवपुर पलकमें। चिद्विलास जयवंत लखि लेहु 'भविक' निज झलक में ॥ २ ॥ दोहा ! द्रव्यसंग्रह गुण उधिलम, किहँ विधि लहिये पार । यथाशक्ति कछु वरणिये निजमति के अनुसार ॥ ३ ॥ चौपाई १५ मात्रा.. गाथा मूल नैमिचंद करी । महा अर्थनिधि पूरण भरी ॥ बहुत धारी, जे गुणवंत । ते संब अर्थ लखहि विरतंत ||४|| हमसे मूरख समझें नाहि । गाथा पढ़े न अर्थ लखाहि ॥ काहु अर्थ लखे बुधि ऐन । बांचत उपज्यो अति चितंचैन ॥५॥ जो यह ग्रंथ कवितमें होय । तौ जगमाहिं पढ़े सब कोय | विधि ग्रंथ रच्यो सुविकास । मानसिंह व भगोतीदास ||६| संवत सत्रहसे इकतीस । माघसुदो दशमी शुभदीस ॥ मंगल करण परमसुखधाम | द्रवसंग्रहप्रति करहुँ प्रणाम ||७|| इति श्रीद्रव्यसंग्रहमूल सहित कवित्तबंध समाप्तः । पुण्य-पापु- फल । [ कवित्त ] ग्रीष्म में धूप परै तामें भूमि भारी जरै, फूलत है आक पुनि अति हो उमहिकै । वर्षाऋतु मेघ भरै तामें वृक्ष केई फरे, जरत जवासा अघ पुहीतें डहिकेँ || ऋतु को न दोष कोऊ पुण्य पाप फलै दोऊ, . जैसे जैसे किये पूर्व तैसें रहे सहिकै । : केई : जीव सुखी होहिं कई जीव दुखी होहिं, देखहु तमासेा 'भैया' न्यारे नेकु रहि कैं ॥
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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