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________________ बड़ा जैन-अन्य-संग्रह। me काय, कात्रामाश जिन अन्यनि गाया है ।। क? घर होय ना मुत्र लें लोय, ना पंचद्रव्यहका सदन चदाई चाही में उर्व है पनिज निज सना गहै, यात परें औरमा अनाक होताया है। जिनने आशाशनाहि हैं ये दरवपत्र, दिदने प्रकाश काजु लामाकाग कहिये। बद्रय अधनंग्य कालद्रव्य पुदगल,न्य जीव इन्य पई पत्रों जहां लहिये। इन अधिक कनु और लोविराज रहो, नाम तो अलोकानाश पेला सरदहिये । दया दानवंदन अनन्तुहान चनुरि, गुगपरजाय सासुमात्र शुद्ध गहिये ॥२०॥ जाई सर्वतव्यका प्रवत्तावन समरय, साई कालद्रव्य बहुमंदमात्र राजई निज निज परजाय विर्ष परजर्व यह, काल की सहाय प्राय कर निज काजई ॥ ताही कालव्यर के विराज रहे भेद वीय, एक व्यवहार परिणाम आदि छाजई। दृजा परमार्थकाल निश्चयवना चाल, कायन रहित लोकाकागों युगानई ॥२॥ लोक्राकाश के जु एक एक परदेश विष, एक एक काल अणुविराज रहे हैं। वात काल अणु के असंख्यद्रव्य ऋहियतु, रद्धन की रात्रि में एक पुज ल्हे हैं । काहुलन मिल कोई रत्नजान दृष्टि जाई, तैसें काल अणु होय भिन्नमात्र नहे है। आदि अन्त मिल नाहिं वना सुभाव मांहिं, सम पल मह परजाय भेद कहे हैं ॥ २२॥ दाहा। जीव अजीवहि द्रव्य के, मेद सुपविध जान । तामें पंच सु फाय घर, कालद्रव्य विन मान ॥२३॥ यमरान' ऐसा मी पाठ है। -
SR No.010157
Book TitleBada Jain Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Mandir Sagar
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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