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________________ सम्यक्त्व “६४७ बिलकुल न निकले । धर्मसाधन मे परम अनुरागवाला व्यक्ति व्यर्थ के कामों में अपना समय नष्ट नहीं करता । जो भी समय उसे मिलता है, उसे वह धर्मसाधन में ही लगाता है। और, अधिक से अधिक धर्म कर लेने का प्रयास करता है। सयम के छोटे-से-छोटा टुकड़ा भी वह व्यर्थ नहीं जाने देना चाहता । वह रिक्त समय में जितना भी सम्भव हो 'नमस्कार-मत्र' आदि का स्मरण करके आत्मा को शुभ परिणामवाला बनाने का प्रयास करता है। देव और गुरु का नियमपूर्वक वैयावृत्य सम्यक्त्व का तीसरा लिंग है। जैसा विद्यासाधक विद्या का नित्यनियमित आराधन करता है, वैसे ही समकितधारी आत्मा देव तथा गुरु का नित्य नियमित आराधन करे । इस आराधन मे वह इतना अभ्यस्त हो जाना चाहिए कि, उसे इसके बिना चैन ही न पड़े। ___ रावण को नित्य जिनपूजा करने का नियम था। वह जिनपूजा किये बिना भोजन नहीं करता था। एक बार वह विमान मे प्रवास कर रहा था। दोपहर के समय जब विमान नीचे उतारा गया, तो सेवक को याद आया कि, जिन-प्रतिमा तो घर ही रह गयी है ! अब क्या हो ? सेवकों ने वहीं वेलू की एक मूर्ति बनायी । रावण ने उसका यथाविधि पूजन किया; उसके बाद ही भोजन किया। उसके बाद उसने वह मूर्ति पास के एक सरोवर मे पधरादी। वह बाद में अतरिक्ष पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुई। सद्गुरु-सेवा के लिए भी समकितधारी के हृदय में ऐसा ही आग्रह होना चाहिए। नजदीक ही गुरुदेव विराजमान हों तो उनके दर्शन किये बिना, उनकी सुखसाता पूछे बिना, उनका विधिपूर्वक वन्दन किये बिना सच्चे सम्यक्त्वी को चैन पड़ेगा ही नहीं । दस प्रकार का विनय सम्यक्त्व की शुद्धि के लिए, सम्यक्त्व के सरक्षण के लिए दस प्रकार
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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