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________________ सम्यक्त्व ६४५ · होता,' सच ऋषि महर्षि इस बात को कहते आये है । अनुभव भी इसका अनुमोदन करता है। पुस्तकें पढकर आप चाहे जैसा ज्ञान प्राप्त कर लें, परन्तु वह सद्गुरु के दिये हुए ज्ञान के समान निश्चित और उज्ज्वल नहीं होता । इसलिए, पडितों और विद्वानों को भी सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए । सद्गुरुकृपा से प्राप्त हुआ तत्त्व बोध दूषित न हो, इसके लिए शास्त्रकारो ने तीसरा और चौथा बोल कहा है। तीसरा बोल है व्यापन्नवर्जन, अर्थात् व्यापन्नदर्शनी का त्याग। जिसका दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व व्यापन्न यानी खडित हो गया हो, उसे व्यापन्नदर्शनी कहते हैं । तात्पर्य यह कि, जो कभी नौ तत्त्वों मे श्रद्धावान् रहा हो; पर बाद में उससे विचलित हो गया हो, उसे व्यापन्नदर्शनी समझना चाहिए । उसका परिचय रखने से अपना सम्यक्त्व मलीन होता है; बल्कि सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जाने का भी प्रसग श्री जाता है । चौथा बोल है कुदृष्टिवर्जन । कुदृष्टि अर्थात् कुत्सित दृष्टिवाला अर्थात् मिथ्यात्वी । मिध्यात्वी के ससर्ग का भी परिणाम बुरा ही आता है । आज लोगों के आचार-विचार में जो शिथिलता देखी जाती है, वह मिथ्यात्वियों के विशेष ससर्ग का परिणाम है । इस पर आज हम आपका विशेष ध्यान दिलाना चाहते हैं । तीन लिंग लिंग अर्थात् चिह्न --पहचानने का निशान ! सम्यक्त्वी आत्मा को पहचानने के लिए शास्त्रकार भगवन्तों ने तीन लिंग बताये है-- पहला है परमागम की सुश्रूषा, दूसरा है धर्म-साधन में परम अनुराग, और तीसरा है देव तथा गुरु का नियमपूर्वक वैयावृत्त्य ! परमागम अर्थात् श्री जिनेश्वर देव प्ररूपित आगम । यहाँ 'परम' विशेषण अन्य धर्म ग्रन्थो से श्रेष्ठता दर्शाने के लिए लगाया है । सुश्रूषा
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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