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________________ आत्मतत्व-विचार दूसरे भव में वह उत्तर कुरुक्षेत्र में युगलिया-रूप से उत्पन्न हुआ। चहाँ से कालधर्म पाकर वह सौधर्म स्वर्ग में देव बनकर उत्पन्न हुआ। चौथे भव में वह पश्चिम महाविदेह में वह वैतान्य-पर्वत पर महाबल नामक विद्याधर हुआ और ससार से विरक्त होकर अनगार बना । उसमें अन्तकाल में बाईस दिन का अनशन करके कालधर्म पाकर ईशान-नामक स्वर्ग मे ललिताग-नामक देव हुआ । वहाँ से च्यवकर छठे भव में पूर्व महाविदेह की पुष्कलावती विजय मे लोहार्गला नामक नगरी में सुवर्णजन राना के यहाँ वज्रजघ-नामक कुमार हुआ। अनुक्रम से वह राज्य का मालिक चना और पुत्र को राज्य सौपकर प्रव्रज्या ग्रहण करने का विचार कर रहा था कि राज्यलोभी पुत्र ने अग्निप्रयोग से उसे मार डाला। सातवें भव में वह उत्तर कुरुक्षेत्र में फिर युगलिया-रूप से उत्पन्न हुआ, आठवें भव में सौधर्म-स्वर्ग में उत्पन्न हुआ, नवें भव में महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठित नगर में सुविधि वैद्य के घर जीवानंद-पुत्र के रूप मे उत्पन्न हुआ। दसवाँ भव बारहवें स्वर्ग मे, ग्यारहवाँ भव महाविदेह मैं तथा बारहवाँ भव सर्वार्थसिद्धि में गुजार कर तेरहवें भव में वह भरत. क्षेत्र में नाभिकुलकर तथा मरुदेवी के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और ऋषभदेव-नामक प्रथम तीर्थंकर बनकर जगत् पर अनेक प्रकार के उपकार करके सिद्ध, बुद्ध, निरजन हुये ! तात्पर्य यह कि, सम्यक्त्व की स्पर्शना होने पर धन सार्थवाह का आत्मा अनुक्रम से विकास पाता गया और वह अपनी आत्मा का कल्याण कर सका । इसीलिए, सम्यक्त्व की इतनी प्रशसा है, सम्यक्त्व का इतना वखान है, सम्यक्त्व का इतना गुणानुवाद है। ' सम्यक्त्व के विषय में अभी बहुत कुछ कहना है, वह अवसर पर कहा जायेगा।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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