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________________ सम्यक्त्व ६२७ भगत करते हैं। वर्ना पर्वमित्र-सरीखे मित्र कोई-न-कोई बहाना बनाकर अपना द्वार बन्द कर लेते हैं और मित्र को ईश्वर के आसरे छोड़ देते है। तीनो मित्र सरोवर के किनारे रहने लगे और विविध प्रकार की चर्चा मे अपना समय बिताने लगे। एक टिन चित्रांग-नामक एक हिरन वहाँ पानी पीने आया। उसे देखकर अतिथि सत्कार-कुशल मथरक बोला-"पधारो भाई हिरन ! आनन्द मे तो हो" चित्राग ने कहा-"भाई ! कैसा आनन्द ! शिकारी कुत्तों से बड़ी कठिनाई से जान बची है !” । __ मंथरक ने कहा--"तुम्हारे स्थान में भय हो, तो यहाँ आ जाओ। यहा हरा-भरा वन है। उसमें आनन्द से चरा करना और सरोवर का शीतल जल पिया करना।" चित्राग ने कहा-"धन्य है, तुम्हारी सजनता को ! इस दुनिया मे अगर तुम जैसे ही भले हो तो कैसा अच्छा हो! पर, यह प्रदेश मेरा अनजाना है, इसलिए मेरा समय आनन्द से कैसे कटेगा ? तुम मित्र बनने को तैयार हो, तो यहाँ रहना मैं जरूर पसन्द करूँगा।" ____ मंथरक ने कहा-"भाई हिरन ! तुम बड़े साफ-दिल हो; तुम्हारी चाणी मधुर है। तुम्हारे साथ मैत्री होना तो एक सौभाग्य है । आज से तुम हमारे मित्र ।" ___इस तरह लघुपतनक कौआ, हिरण्यक चूहा, मंथरक-कछुवा और चित्राग-हिरन ये चार परम मित्र बनकर सुख से अपना समय बिताने लगे। ___ एक बार बहुत देर हो जाने पर भी चित्राग नहीं लौटा, इससे सब मित्रों को चिन्ता होने लगी। आखिर लघुपतनक ने उसकी खबर लाना अपने जिम्मे लिया। वह आकाश में ऊँचा उड़कर चारो तरफ देखने लगा। आखिर उसने चित्राग को एक तालाब के किनारे जाल में फंसा हुआ देखा । यह देखकर लघुपतनक ने पूछा-"भाई ! यह हालत कैसे हुई ?"
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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