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________________ ६२६ आत्मतत्व-विचार चतुर हिरण्यक बोला- "हे कौआ भाई ! मैं भोज्य हूँ और आप भोक्ता हैं, हमारे आपके बीच प्रीति कैसे हो सकती है ?" ___कौए ने कहा-"चूहा भाई ! तुम सच कहते हो, पर ऐसे किसी दुष्ट विचार से मैं मित्रता नहीं करना चाहता। तुम-जैसे आज चित्रग्रीव के काम आये, वैसे मेरे लिए भी कभी सहायक होओ; इसलिए तुम्हारी मित्रता चाहता हूँ । कृपया मेरी मॉग स्वीकार करो।" हिरण्यक ने कहा-"पर भाई ! तुम ठहरे स्वभाव के चचल और चचल के साथ स्नेह करने में सार नहीं । कहा है कि, बिल्ली का, भैंसे का, मेंढे का, कौए का और कायर का कभी विश्वास न करे।" लघुपतनक ने कहा- "यह सब ठीक है। प्रमाण तो दोनों पक्ष के दिये जा सकते हैं। तुम मेरी भावना की ओर देखो। मैं हर तौर से तुम्हारी मैत्री चाहता हूँ। अगर, तुम मेरी विनती नहीं सुनोगे तो मै अनाहारी रहकर प्राण त्याग दूंगा।" लघुपतनक के ऐसे शब्द सुनकर हिरण्यक ने उसकी मैत्री स्वीकार कर ली। एक बार लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा-"मित्र ! इस प्रदेश में तो बड़ा अकाल पड़ा हुआ है; पेट भरना भी कठिन हो गया है। पास ही दक्षिणापथ मे कर्पूरगौर-नामक एक सरोवर है। वहाँ मेरा प्रिय मित्र मंथरक-नामक कछुवा रहता है । मैं उसके पास जाता हूँ।" हिरण्यक ने कहा-'कौआ भाई ! तो फिर मै यहाँ अकेला रहकर क्या करूँगा ? तुम्हारे बिना मुझे यहाँ बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा; इसलिए मैं भी तुम्हारे ही साथ चलूंगा।' कौए ने चूहे को चोंच में लिया और दोनों उस सरोवर के किनारे पहुँचे । मथरक ने दोनों का स्वागत किया और कहा-"यह स्थान तुम्हारा ही है । आप दोनों यहाँ शौक से रहें और खायें-पियें और मौज करें।" जो सच्चे मित्र होते हैं, वे सकट के समय सहायता करते है और यथासम्भव आव
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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