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________________ ६१८ आत्मतत्व-विचार एक लाख उनसठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ थीं । सामान्य श्रावक-श्राविकाओ की इनम गिनती नहीं है। जबकि व्रतधारी श्रावक-श्राविकाये इतनी थीं, तो सामान्य श्रावक-श्राविकायें कितनी होगी!) विधिपूर्वक वन्दन करने के बाद जयन्ती श्राविका ने प्रश्न किया-"हे भगवन् ! आत्मा भारी कब बनती है और हल्की कत्र !" भगवान् ने कहा- "हे श्राविका ! अठारह पापस्थानको से आत्मा भारी बनती है और उनके त्याग से हल्की !” कैसा सुन्दर और मार्मिक उत्तर है। जैसे शरीर रोग से और वजन से भारी बनता है वैसे आत्मा कर्म से भारी बनती है। परन्तु, हम उस बोझ को दूसरे स्थूल बोझों की तरह महसूस. नहीं करते, यही बड़ी खराबी है ! ___ अगर आत्मा पर कर्म का बोझ न होता, तो वह पूर्ण ज्ञानी होता और सब दुःखो से पार हो गया होता । लेकिन, कर्म के बोझ के कारण वह विविध दुःखों का अनुभव किया करता है। परन्तु, हम दुःख को दुःख नहीं समझते यह बड़ा आश्चर्य है ! गुरु महाराज का उपदेश आपको उस भार का भान कराने के लिए और दुःख को दुःख से पहचानने के लिए ही है। आत्मा को कम की पराधीनता जबरदस्त है। जो आदमी जो किसी मेट की नौकरी करता है, वह अपने मालिक के पराधीन है। पर, उसका सेठ कर्म के पराधीन है । उसे दूकान पर आना पड़ता है, चौपड़े देखने पड़ते है, गुमाश्तों की खबर रखनी पड़ती है, देगावर से कोई आढ़तिया आया हो, उसका हाल पूछना पड़ता है और बीवी-बच्चों व तिजोरी की सँभाल रखनी पड़ती है। उसे समय के अनुसार ही भोजन कर लेना पड़ता है । कर्म के आगे किसी का वश नहीं चलता !
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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