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________________ पाप-त्याग ६२१ ठाणागसूत्र में कहा गया है कि, जहाँ अपूज्य योगी पूजा जाता है और त्यागी संतों की निन्दा, अवगणना होती है, वहाँ दुष्काल पड़ता है, मय वहाँ उपस्थित रहता है और मरण-सख्या बढ जाती है । आज आप यह सब अपनी नजर से देख रहे है। अगर हृदय मे पापत्याग की भावना बसी हुई हो तो, कर्म की बड़ी निर्जरा होती है, और अगर पापसेवन की भावना हो, तो कर्म का बन्ध होता है और आत्मा भारी हो जाती है, चाहे वह भावना उठते, बैठते, सोते, किसी भी हालत में की हो; इसलिए सच्ची आवश्यकता मन से पापसेवन की भावना दूर करने की है। आपकी समझ सुधरे, आपकी देह-बुद्धि ( काया को आत्मा समझना) दूर हो और सत्सग तथा वैराग्य की भावनाएँ विकसित हो तो पापसेवन की भावना दूर हो । यह आपका सबसे बड़ा लाभ है। ___पाप लग जाने पर उसकी शुद्धि के लिए शास्त्रकारो ने निंदा, गर्दा, प्रायश्चित आदि अनेक उपाय बताये हैं और उन्होंने असख्य-अनन्त आत्माओं को लाभ पहुंचाया है, परन्तु हमारा कहना यह है कि, पाप मे पड़ा ही न जाये, इसके लिए मनुष्य को प्रारम्भ से ही पूरी सावधानी रखनी चाहिए । धर्मी का प्रथम लक्षण यह है कि, वह जहाँ तक बने पाप करता ही नहीं है और जो पाप हो गया हो उसके लिए अत्यन्त दुःखी होता है। विशेष अवसर पर कहा जायगा । -
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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