SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 686
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६४ आत्मतत्व-विचार ग्रहण करनी चाहिए ।' लेकिन, यह सोचना भी गलत है । हम किसी भी धर्म का अपमान न करें, पर मान तो गुण-दोष की परीक्षा मे अच्छा निकलनेवाले धर्म को ही दिया जा सकता है । परीक्षा के बिना सत्रको अच्छा मान लेना और मान देना तो हीरे और कॉच को समान मान लेना है । 'जो धर्म सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवों तक के प्रति दया पालने की बात कहता है, वह भी अच्छा और जो पशुबध की छूट देता है वह भी अच्छा ! जो धर्म मांस-मदिरा के सम्पूर्ण त्याग की बात कहता है, वह भी अच्छा और जो मासाहार या मदिरापान की छूट देता है, वह भी अच्छा !' - ऐसा मानना वस्तुतः एक प्रकार का बुद्धिभ्रम है । ग्रहण करने में किसे नाये ? अच्छी बात हर जगह से आपत्ति नहीं है, पर प्रश्न यह है कि, 'अच्छी बात' कहा इसकी नीति शास्त्रकारों ने निर्धारित कर दी है- "जिसमे अहिंसा हो, सयम हो, तप हो वह अच्छी चात है और जिसमे उसका अभाव है, या अल्पता है वह खराब बात है ।" इस नीति के अनुसार हम अच्छी वस्तु को अवश्य ग्रहण कर सकते हैं । महानुभावो ! आज धर्म के प्रकारों के विषय मे विवेचन करना है; उसमें इतनी प्रासंगिक बातें हो गर्यो । आजकल युवक-युवतियों स्कूलकालेजो की सभा - सोसाइटियों से अनेक विचार ले आते हैं और उन्हे आदर्श मानकर उनका अनुशीलन करने लगते है; इसलिए उनका यह भ्रम भग करना आवश्यक है । अब धर्म के प्रकारों पर आयें । यहाँ एक महानुभाव प्रश्न करते हैं"नमस्कार-मंत्र में देव और गुरु की वन्दना आती है, पर धर्म की वन्दना नहीं आती, इससे यह सिद्ध होता है कि, धर्म मूलभूत वस्तु नहीं है । फिर उसके प्रकारों का वर्णन किसलिए ?” उक्त महोदय से पूछना चाहिए कि क्या आप 'नमस्कार मंत्र' का अर्थ भी ठीक-ठीक जानते हैं ? नमस्कार मंत्र के पॉच पर्दो के बाद 'एसो पंच-नमुक्कारो, सव्वपाव
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy