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________________ धर्म का आराधन ५७१ देवदत्त पढने में होशियार था। इसलिए, पढायी-लिखायी में उसने अच्छी प्रगति की । भूतमति का वह कृपा भाजन बन गया था और वह देवदत्त को घर के प्राणी की तरह रखता। __यज्ञदत्ता नवयौवना थी। अतः, उसका मन भूतमति से तुष्ट न था। उसकी दृष्टि देवदत्त पर पड़ी और वह उसके साथ परिचय बढाने लगी। इसी बीच भूतमति को मथुरा के एक वृहत् यज्ञ में सम्मिलित होने का आमत्रण मिला । इस यन में भाग लेने से पैसे की प्राति होती और प्रतिष्ठा में वृद्धि होती; इसी दृष्टि से उसने आमत्रण स्वीकार कर लिया । ___ चलते समय भूतमति ने कहा-"तुम्हे छोड़कर जाने को मेरी इच्छा नहीं होती, पर मजबूरी है। पास का पैसा समाप्त हो गया है, अतः जाना आवश्यक है । वहाँ मुझे चार महीने लगेंगे, तू घर की सार-सँभाल करना । यह सुनकर यजदत्ता बोली-'पर, मेरा तो तुम्हारे बिना एक दिन नहीं चलने का । अतः अच्छा हो, मथुरा जाना स्थगित कर दें।" भूतमति ने उत्तर दिया-'मेरी भी दशा तो तुम्हारे ही जैसी है।। अतः, शीघ्र ही राजो करके छुट्टी लेकर मै लौट आऊँगा।" यज्ञदत्ता रानी हो गयी और उसने भूतमति को जाने की अनुमति दे दी। भूतमति मथुरा चल पड़े। यजदत्ता अब अकेली हो गयी । उसने देवदत्त से कहा-"अब तुम मेरे साथ निःसकोच भोग भोगो: क्योंकि यौवन का फल भोग विलास-ही है।" देवदत्त ने पहले तो इनकार किया, पर अन्त मे वह भी पाप-कर्म में लिप्त हो गया। इस प्रकार चार मास बीत गये । देवदत्त ने कहा-"अब तो तुम्हारे पति आते ही होंगे और अवश्य ही मुझे घर से निकाल बाहर करेंगे।" यज्ञदत्ता बोली-" तुम इसकी चिंता मत करो। मैं ऐसा प्रपत्र रचूंगी कि, हम दोनों साथ ही रहेंगे।"
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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