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________________ ५६२ प्रात्मतत्व-विचार चन्द्रसूरि, श्री जिनचन्द्रसूरि (खरतरगच्छ ), श्री देवसूरि, श्री महेन्द्र. सिंह सूरि ( अचलगच्छ ), श्री सोमप्रभसूरि, श्री जिनचन्द्रसूरि, (ख०) श्री जिनकुशलसूरि (ख०), श्री सिंहतिलकसूरि, श्री ज्ञानसागरसुरि, श्री कुलमंडनसूरि, श्री जयकीर्तिसूरि, श्री हीरविजयसरि, श्री ज्ञानविमलसूरि, श्री विजयरत्नसूरि आदि बाल-दीक्षित ही थे। उन्होंने बाल्यावस्था में धर्म का सुन्दर आराधन करके अपना संसार अल्प बनाया था। वैदिक धर्म में भी ध्रुव, प्रह्लाद, शकराचार्य, नामदेव आदि ने । बाल्यावस्था मे विरक्त होकर ईश्वर-भक्ति की थी। बालक को अगर बचपन से ही धर्म के संस्कार दिये जाये, तो वह व्रत-नियम तप बड़ी अच्छी तरह कर सकता है। संस्कारी कुटुम्बों में बालक ६-७ वर्ष की उम्र में चौविहार करते हैं, मातापिता के साथ सामायिक करने बैठ जाते हैं, नियमित देवदर्शन करने जाते हैं और पर्वदिवसों मे उपवास भी करते हैं। छोटी उम्र के बालकों के अट्ठाईजैसी तपस्या करने के उदाहरण आज भी मौजूद हैं। इससे आप समझ सकते हैं कि, 'बालक धर्म में क्या समझे? यह कहनेवाले कितनी गलती पर हैं। जिन्होने अपने जीवन में धर्म को मित्र नहीं बनाया, इन्द्रियों के एक भी विषय को नहीं जीता और सयम तथा तप के प्रति अनुराग प्रकट नहीं किया, चे ही आज यह कहने बाहर निकल पडे है कि, "बालक धर्म के सम्बन्ध में क्या समझे ? बालक से धर्मपालन हो ही नहीं सकता ?” परन्तु, यह विधान तो ऐसा ही है, जैसे कोई मछलीमार कहे कि, 'जगत् में जीवदया पालना गक्य ही नहीं है।' अथवा कोई व्यभिचारी पुरुष कहे कि 'इस दुनिया में ब्रह्मचर्यपालन सभव नहीं है।' सुज्ञ पुरुष ऐसे धर्महीन वचन बोलनेवालों का किसी तरह से विश्वास कैसे कर सकते हैं ?
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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