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________________ पैंतीसवाँ व्याख्यान धर्म की शक्ति आज के युग में जिस विचारणा की अत्यन्त आवश्यकता है, वह कल के व्याख्यान से प्रारम्भ हो चुका है । गत व्याख्यान में 'धर्म की आवश्य कता' पर विचार किया गया, उसी के अन्तर्गत आज 'धर्म की शक्ति' पर विचार किया जायेगा। कर्म की सत्ता समस्त जगत पर-समस्त प्राणिवर्ग पर लागू है। बलदेव, वासुदेव अथवा चक्रवर्ती तक उसकी सत्ता से मुक्त नहीं है तो फिर दूसरों की बात ही क्या ? पर, उस कर्म की सत्ता को भी तोड़नेवाला 'धर्म' है। साँप और नेवले की लड़ाई में अन्त में कौन विजयी होता है ? सॉप नेवले को काटता है तो नेवला अपनी बिल मे जाकर नोलवेल सूंघ आता है और सॉप के विष से मुक्त हो जाता है । सॉप की लम्बाई, उसके आकारप्रकार और साँप के दो-दो तीक्ष्ण दाँतों से वह किञ्चित् मात्र नहीं डरता । वह अपना वीरतापूर्ण युद्ध जारी रखता है और अन्त में सॉप को मात करके ही रहता है। धर्म भी इसी प्रकार की चीज है। कर्म सत्ता अति बलवान् है, पर उसके सम्मुख वह बड़े शौर्यपूर्ण रूप मे युद्ध करता है और अन्त में कर्म को मात देकर ही छोड़ता है। कर्म के साथ संघर्ष में धर्म ही विनयी होता है। इमीलिए, धर्म की मत्ता है, धर्म का सम्मान है और इसीलिए धर्म की प्रगसा होती है। धर्म की यही उपादेयता है । यदि कर्म के साथ हुए संघप मं धर्म पराजित हो गया होता, तो धर्म का नाम ही कौन लेता ? ससार
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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