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________________ ५०१ कर्म की निर्जरा राजा स्नान-पूजा करके और योग्य वस्त्रालकार धारण करके समय पर भोजनखड में आया अपने आसन पर बैठ गया । उसके आगे थाल रख दिया गया । इतने में वह रसलुब्ध चोर आया । मत्री ने सूक्ष्म रन मे उसके पैरों के निशान देखे कि उसने संकेत कर दिया और भोजनखंड के सत्र दरवाजे फौरन् बन्द हो गये। फिर मंत्री के आज्ञानुसार वहाँ गीली लकड़ियाँ और अमुक वनस्पतियाँ जलाकर उनका धुआँ किया गया । यह धुआँ बहुत तेज था । चोर की आँखों से बहने लगी और उसके साथ ही वह अजन भी धुलकर आँसुओ की धारा निकल गया । जिसकी शक्ति से वह अदृश्य होता था, वह वस्तु चली गयी, इसलिए वह दृश्य हो गया । वह सबको दिखलायी देने लगा । राजसेवकों ने उसे पकड़ लिया । राजा ने उसकी बडी लानत-मलामत की और सूली की सजा -मुना दी । मत्री को बड़ा इनाम दिया गया । कहने का तात्पर्य यह कि, अदृश्य वस्तुओं को भी युक्ति से पकड़ा सकता है और दूर किया जा सकता है । कर्मों को निकालने का उपाय कर्मों को दूर करने के लिए उन्हें पकड़ने की जरूरत नहीं है, पर कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि वे आत्मा से पृथक हो जायें । ऐसा उपाय महापुरुषोंने बताया है : मलं स्वर्णगतं वह्निर्हसः क्षीरगतं जलम् । यथा पृथक्करोत्येव, जन्तोः कर्ममलं तपः ॥ -- जैसे सोने के मैल को अग्नि दूर कर देती है, दूध के जल को हस अलग कर देता है, उसी प्रकार प्राणियों के आत्माओं के कर्ममल को तप दूर कर देता है | A जब आदमी किसी फौजदारी के मामले में फॅस जाता बचने का उपाय नजर नहीं आता तो वह 'सालीसिटर' है और उसे अथवा वैरि
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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