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________________ आत्मतत्व-विचार उन-जैसा वैभव प्राप्त कर सकता।' इस तरह हे राजन् ! अगर तू अपना कदाग्रह नहीं छोडेगा तो उस लोहे के बोझ को उठाकर लानेवाले की तरह बड़ा पछतायेगा।" श्री केशीकुमार श्रमण के इस उपदेश से प्रदेनी राजा की गका निवारण हो गयी और विश्वास हो गया कि आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व हे और वह अपने किये हुए पुण्य-पाप का बदला अवश्य भोगता है। इसलिए, उसने आचार्यश्री से धर्म श्रवण करके सम्यक्त्वमूल श्रावक के बारह व्रत अगीकार किये, और उनका विविपूर्वक आराधन करने लगा। अत्र उसका झुकाव पूरी तरह आध्यात्मिक हो जाने के कारण, वह भोग से विमुख हो गया। यह बात उसकी रानी सूर्यकाता को अच्छी नहीं लगी; इसलिए रानी ने उसे जहर दे दिया। फिर भी, उसने मन की समाधि अन्त तक बराबर कायम रखी और मरने के बाद सूर्याभ-नामक टेव हुआ, जिसका कि वर्णन रायपसेणइय-सूत्र में आता है। 'आत्मा है यह भारतीय तत्त्वज्ञान की अमर घोपणा है और वह सच्ची है । उसे मानने में ही सबका कल्याण है |
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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