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________________ ४५२ आत्मतत्व-विचार __ में आते हैं और जघन्य १ समय बाद तथा उत्कृष्ट ६ आवलिका के बाद, वे मिथ्यात्व को अवश्य पाते हैं। यह गुणस्थान ऊँचे चढते हुए जीवो को नहीं, नीचे गिरते हुए लीवो को होता है, इसलिए इसे अवनति स्थान मानना चाहिए। फिर भी इस गुणस्थान पर आनेवाले जीव अवश्य ही मोक्ष जानेवाले होते है, और पहले गुणस्थान से यह बढ़कर है, इसीलिए दूसरी भी गणना गुणस्थान ही है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि, पहला, दूसरा और तीसरा गुणस्थान जीव की अविकसित दशा सूचित करते है और उसके बाद के गुणस्थान विकसित दशा की सूचना देते है। चौथे गुणस्थान पर जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । वह उसके सच्चे आध्यात्मिक विकास का प्रारम्भ है। तीर्थकर भगवन्तों के जीवन में पूर्व भवों का वर्णन आता है, उसमें पूर्व भव की शुरुआत वहीं से होती है, जहाँ से उनको आत्मा ने सम्यक्त्व का स्पर्श किया हो। यह गुणस्थान सादि-सान्त है और वह अभव्य को नहीं होता। (३) सम्यग्-मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान दर्शनमोहनीय-कर्म की दूसरी प्रकृति मिश्र-मोहनीय है। उसके उटय , से जीव को एक साथ समान परिमाण में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्र भाव होता है। इसीलिए इसे सम्यमिथ्यादृष्टि या मिश्र-गुणस्थान कहा जाता है। जो जीव सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व इन दो में से किसी एक भाव मे वर्तता हो, तो वह जीव मिश्र-गुणस्थानवाला न कहा जायेगा; कारण कि, यहाँ मिश्र भाव एक नये जाति के तीसरे भाव के समान है। जैसे घोड़ी और गधे के सयोग से खच्चर होता है, गुड़ और दही के स योग से एक तीसरा ही स्वाद आता है, उसी प्रकार जिस जीव की बुद्धि
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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