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________________ आठ करण ... ४४१ ज्यादा स्थिति तोड़े तो देशविरति प्रात कर सकता है और उससे भी अधिक स्थिति को तोड़े तो सर्वविरति प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार आत्मा के गुण प्रकट करने के लिए कर्म की स्थिति तोड़ डालनी पड़ती है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि, कर्म की स्थिति टूट जाने पर भी कर्म के प्रदेशों का समूह तो जैसे-का-तैसा रहता है, परन्तु वह दीर्घकाल के बजाये अल्पकाल में भुगत जाता है। जिसके द्वारा कर्म की प्रकृति में परिवर्तन हो जाये, उसे संक्रमणकरण कहते हैं। संक्रमण सजातीय प्रकृति में होता है, विजातीय प्रकृति में नहीं । कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ है और उत्तर प्रकृतियाँ १५८ हैं। उनमें एक ही कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ सजातीय कहलाती हैं और दूसरे कर्मों की प्रकृतियाँ विजातीय प्रकृतियाँ कहलाती है। इस प्रकार असातावेदनीय का सातावेदनीय हो सकता है और सातावेदनीय का असातावेदनीय हो सकता है, पर मोहनीय या अन्तराय आदि नहीं हो सकता । कर्म के उदय के लिए जो काल नियत हुआ हो उससे पहले ही कर्म उदय मे ले आया जाये तो कर्म की उदीरणा कहा जायगा। कर्म को उदीरणा करनेवाले करण को उदीरणाकरण कहते हैं। जैसे कच्चे पपीते को नमक की कोठी में रखकर या आम को घास में रखकर जल्दी पकाया जा सकता है, उसी प्रकार कर्म को जल्दी उदय मे लाया जा सकता है । सामान्य नियम यह है कि, कर्म का उदय चल रहा हो तो उसके सजातीय कर्म की प्रकृति की उदीरणा हो सकती है। . उदय में आया हुआ कर्म पूर्ण काल से उदय में आया है या उदीरणा होकर उदय में आया है, यह ज्ञानी ही कह सकते है । परन्तु, कर्म उदीरणा से उदय में आया हो तो सम्यग्दृष्टि आत्मा भवितव्यता का ऐहसान माने । वह तो यही मानेगा-'नब हर हाल में ऋण चुकाना है, तो अच्छी हालत में चुका देना ही अच्छा। इस समय वीतराग देव मिले हैं, निर्ग्रन्थ-गुरु
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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