SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४० आत्मतत्व-विचार होने से पहले तीसरे भव में बीस स्थानकों में से एक, दो या अधिक स्थानको को उत्कृष्ट भाव से स्पर्श करके जिन-नामकर्म को निकाचित करता है, इसलिए वह तीर्थंकर अवश्य होता है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। जिसकी वजह से कर्म की स्थिति और रस बढ़ जायें वह उद्वर्तना करण है, और जिसकी वजह से कर्म की स्थिति और रस घट जायें वह अपवर्तनाकरण है। आत्मविकास का मार्ग सुलभ-सरल बनाने के लिए अशुभ कर्म की स्थिति और रस की अपवर्तना आवश्यक है। __ जैन-महात्मा करते हैं कि, अशुभ कर्मफल भोगने के काल का परिमाण तथा अनुभव की तीव्रता निर्णीत होने पर भी आत्मा के उच्चकोटि के अध्यवसाय-रूप करण द्वारा उसमें न्यूनता लायी जा सकती है। किसी आदमी को अपराध के लिए बारह वर्ष की सजा मिली हो, पर अगर वह जेल मे अच्छा वर्तन रखे तो उसके कुछ दिन काट दिये जाते है। वह बारह वर्ष के बजाय नौ या दस वर्ष में छूट जाता है । यहाँ भी सद् विचार और सद्वर्तन का ही सवाल है । जिसे कर्म-स्थिति को तोड़ना नहीं आता, वह आगे नहीं बढ सकता। आत्म-विकास के मार्ग में काल को कैसे तोड़ा जाये, यही मुख्य बात है। आत्मा जब मोहनीय-कर्म की स्थिति ६९ कोड़ा-कोड़ी सागरोपम से कुछ घटाये-बढाये तभी ग्रन्थिभेद करके सम्यक्त्व पा सकता है। उससे १ जिन बीस स्थानकों की आराधना करने से जिन नाम कम बंधता है उनके नाम ये है, (१) अरिहतपद, (२) सिद्ध पद, (३) प्रवचन पद, ( ४ ) प्राचार्य पद, (५) स्थविर पद, (६) उपाध्याय पद, (७) साधु पद, (८) ज्ञान पद, (६) दर्शन पद, (१०) विनय पद, (११) चारित्र पद, (१२) ब्रह्मचर्य पद, (१३) क्रिया पद, (१४) तप पद, (१५) गौतम पद, (१६) जिन पद, ( १७ ) सयम पद, (१८) अभिनव ज्ञान पद, (१६) श्रुत पद और (२०) तीर्थ पद।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy