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________________ ४०६ श्रात्मतत्व-विचार की अपेक्षा उन प्राणियों की संख्या असख्यात गुणी है, जिन्होंने आपका कुछ नहीं बिगाडा | इस व्रत के लेने से आप उनकी हिंसा से बच जाते हैं । चौथा व्रत परस्त्री का त्याग है । इस व्रत को लेनेवाले को अपनी स्त्री के साथ समागम की छूट रहती है, शेप तमाम त्रियो का त्याग रहता है । यह व्रत न हो तो तमाम स्त्रियो के साथ छूट का पाप लगे, जो कि महा हानिकर हो । व्रत लेने से मनुष्य मेरु, पर्वत के समान पाप से बच जाता है और व्रत न लेने से मेरु पर्वत के बराबर पाप में फॅस जाता है। चाहे आपने एक ही व्रत लिया हो, पर उससे पाप के त्याग की शुरुआत हो जाती है । जिसे एकबार देगविरति आ गयी, उसे सर्वविरति आने मे ढेर नहीं लगती और आत्मा सर्वविरति में आया कि, मोक्षमार्ग पर तेजी से बढने लगता है । मूल बात है, पाप की वृत्ति छोड़ना ! पाप की वृत्ति छूटे तो पाप छूटे और पाप छूटे तो कर्म छूटे !! जिसके कर्म छूट जाते हैं, वह अनन्त सुख का उपभोक्ता हो जाता है । पापवृत्ति पर भिखारी का दृष्टान्त ढाई हजार वर्ष पूर्व मगध देश मे राजगृही - नामक नगरी थी । उसके पास वैभारगिरि नामक पहाड़ था । ** उस नगरी में एक भिखारी ने सारे दिन धक्के खाये; मगर उसे कुछ खाने नहीं मिला । इससे उसका क्रोध भड़क उठा और नगरो को नष्ट कर डालने की सोचने लगा । अपने इरादे को पूरा करने के लिए, वह वैभारगिरि पर चढ़ा | वहाँ एक बडी गिला टिकी हुई थी । अगर वह गिरायी * श्राज भी राजगृही नगरी के उटहर मोजूद है श्रर उनके पाम वैभारगिरि खटा हुआ है ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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