SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म की शुभाशुभता ३७५ सब है! तू न रहे तो हमारा कुछ न रहे !! इसलिए हम पर कृपा करना "!" एक दिन रात्रि के समय लक्ष्मीदेवी ने कुवेर को उठाया और कहा"हे सेठ ! मैं सात पीढी से तुम्हारे साथ रहती हूँ, पर अब जानेवाली हूँ, इसलिए तुम्हारी अनुमति लेने आयी हूँ !" ये शब्द सुनते ही कुवेर घबराया-"अब मेरा क्या होगा । मेरे कुटुम्बियो का क्या होगा? ये ऐशो-आराम मौज मजा कैसे किये जा सकेंगे?" उसकी आँखों में ऑसू आ गये। लक्ष्मी ने कहा-"मुझे तुम्हारे प्रति स्नेह है। पर, क्या करूँ ? मैं पुण्य के अधीन हूँ, उसके पूरे हो जाने पर मुझे चला जाना पड़ता है।" कुवेर ने समझा कि, अब लक्ष्मी रोके नहीं रुकेगी। इसलिए, उसके चले जाने से पहले कुछ करना चाहिए। उसने बड़ी नम्रता से लक्ष्मी से कहा-"आप जाना चाहें तो जायें, पर मेरी एक मॉग पूरी करती जायें।" लक्ष्मी ने पूछा-"तुम्हारी वह माँग क्या है ?" कुवेर ने कहा--"भाप केवल तीन दिन और रुकें।" लक्ष्मी ने अवधिज्ञान से उपयोग लगाकर देखा कि इस सेठ का पुण्य तीन दिन का और है, इसलिए वह 'तथास्तु' कह कर अन्तर्धान हो गयी ।" ___ सवेरा होने पर कुवेर ने यह बात अपने सारे कुटुम्ब को कह सुनायी। सुनकर सब ढीले हो गये और कहने लगे- "हाय-हाय ! अब हमारा क्या होगा ? अब तो सब चला जायगा ! हमें तो कुछ सूझता नहीं, तुम जो कहो वह करें ।" सेठ विचार करने लगा-"लक्ष्मी की इतनी-इतनी पूजा की, फिर भी वह जाना चाह रही है। अगर इतनी पूजा भगवान् की होती और दान-पुण्य किया होता, तो लक्ष्मी भला क्या जाती ? नहीं नहीं ! वह नहीं जाती ।। मैं भी देखता हूँ कि, यह कैसे जाती है ?” और, उसने सबसे
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy