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________________ ३७४ श्रात्मतत्व- विचार होना सम्भव नहीं है | ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचौ प्रकृतियाँ ज्ञान को दबाती हैं; इसलिए वे अशुभ मानी जाती हैं। आत्मा में सारा ससार अर्थात् लोक- अलोक, रूपी - अरूपी सब देखने की शक्ति है । उसे रोकने वाला दर्शनावरणीय कर्म है । वह भी ज्ञानावरणीय कर्म की तरह दर्शन का अनन्तवा भाग खुला रहने देता है आत्मा के दर्शन स्वभाव को रोकनेवाली होने के कारण दर्शनावरणीय कर्म की नौ-की- नौ प्रकृतियॉ अशुभ गिनी जाती हैं । मोहनीय कर्म आत्मा के वीतराग स्वभाव को रोकता है। उसकी उत्तर प्रकृतियाँ २८ हैं । उनमें दर्शनमोहनीय की एक ही प्रकृति गिनने पर २६ ही प्रकृतियाँ रह जाती हैं । ये छब्बीसों प्रकृतियाँ अशुभ हैं । अनन्तराय कर्म आत्मा की शक्ति को रोकनेवाला है, आत्मा को कमजोर बनानेवाला है । उसकी पाँच प्रकृतियाँ क्रमशः दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य को रोकती हैं; इसलिए अशुभ हैं । इन पाँचो अन्तराय कर्मों में लाभान्तराय ज्यादा बाधक है। हर एक कर्म को तोड़नेवाले अलगअलग साधन हैं । इस तरह लाभान्तराय को तोड़नेवाला दान है । आप दान करेंगे, तो लाभान्तराय टूटेगा । 'लक्ष्मी पुण्य के अधीन है,' ऐसा कहा जाता है । इसका अर्थ भी यही है कि, आप दान करें तो पुण्य बढ़ेगा और पुण्य बढने पर लक्ष्मी अवश्य आती है । कदाचित् वह जानेवाली हो तो भी रुक जायेगी । आप कुवेर सेठ की बात सुनें, आपको यह बात समझ में आ जायेगी । कुवेर सेठ की बात अपार सम्पत्ति चली आती थी । वह रंग-बिरंगे पुष्पों से लक्ष्मी पूजा करते एक नगर मे कुवेर - नामक सेठ रहता था । उसके पास सात पीढी से नित्य प्रातः नहा-धोकर सुन्दर ताजे हुए कहता - "हे माता 1 तू है तो
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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