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________________ आठ कर्म ३२३ प्रत्याख्यानीय चैल की मूत्रधारा-जैसी नो हवा लगते दूर चली जाती है। अप्रत्याख्यानीय-भेड़ के सॉंग जैसी जो बड़े प्रयत्न से अपनी बक्रता छोड़ती है - अनन्तानुबन्धी-नॉस की कठिन जड जैसी, जो किसी प्रकार अपनी वक्रता न छोड़े । लोभ संज्वलन - हल्दी के रंग जैसा, कि धूप लगने से दूर हो जाये । प्रत्याख्यानीय - गाड़ी की मैल जैसा जो कपड़ा लगते साफ हो जाये । अप्रत्याख्यानी —— कीचड़ जैसा जो बड़े प्रयत्न से मिटे | अनन्तानुबन्धी--- किरमिज के रग-जैसा, जो दूर ही न हो । आत्मा को क्रोध मोहनीय कर्म के उदय से आता है । यह मादक वस्तु है । जैसे नशे में आदमी भान भूल जाता है और अकरणीय कर बैठता है, उसी तरह क्रोधाभिभूत आदमी विवेक, सम्बन्ध, परिणाम, वगैरह सब भूल कर न करने योग्य काम कर बैठता है । क्रोध से आदमी स्वय अशात हो जाता है और दूसरे को भी अशात कर डालता है । / मान, माया और लोभ भी आत्मा में अशांति पैदा करने का ही काम करते हैं । क्रोध और मान गर्म अशाति है, माया और लोभ उडी अशाति है । लोभ मे झगड़ा या बैर नहीं है, लेकिन उसके कारण आत्मा को अधिकाधिक पाने की इच्छा होती है और असन्तोष में से अशाति जन्मती है । लालच के कारण लोग झूठ बोलते है, कपट करते है और अनीति करने के लिए प्रेरित होते हैं । इन सब वस्तुओं से आत्मा व्याकुल हो जाती है, उसे चैन नहीं पड़ता । जिन्हें गात दशा का सच्चा अनुभव होता हैं, वे ही शांति का सच्चा मूल्याकन कर सकते हैं । लेकिन, हरदम अशात रहने वाला शाति का मूल्य क्या समझ सकता है ? जिसके जीवन में क्रोध, मान, माया और लोभ न हो, वही सच्ची शात दशा का अनुभव कर सकता है । ·
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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