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________________ २८४ श्रात्मतत्व-विचार ( २ ) अविरति, ( ३ ) कपाय और ( ४ ) योग । इन चारों कारणों का -स्वरूप समझ कर कर्मबन्धन से बचा जा सकता है । मिथ्यात्व शास्त्रकारो ने कहा है – “इस जगत् में शत्रु बहुत होते है, पर मिथ्यात्व - जैसा कोई शत्रु नहीं है । विष अनेक प्रकार के होते हैं, पर मिथ्यात्व - जैसा कोई विष नहीं है । रोग अनेक प्रकार के होते हैं; पर मिथ्यात्व जैसा कोई रोग नहीं है । अधकार अनेक प्रकार का होता है, पर मिथ्यात्व जैसा कोई अंधकार नहीं है ।" इससे आप समझ गये होगे कि मिध्यात्व कैसी भयकर वस्तु है ! श्रभिग्गहियं श्रणभिग्गहियं तह अभिनिवेसियं चेव । संसइयमणाभोगं, मिच्छत्तं पंचहा भणियं ॥ 'मिथ्यात्व पाँच प्रकार का कहा गया है -१ आभिग्रहिक, २ अनभिग्रहिक, ३ आभिनिवेशिक, ४ सामयिक और ५ अनाभोगिक | खरे-खोटे की परीक्षा किये बगैर ही, अपनी मति में जो आया उसे ही सच मान लेना श्रभिग्रहिक मिथ्यात्व है । सब धर्मों को अच्छा मानना, सब दर्शनो को सुन्दर मानना, सत्र का वन्दन करना, सबको पूजना और यूँ अमृत और विष को समान गिनना श्रनभिग्रहिक मिथ्यात्व है । सत्य मार्ग जानने पर भी किसी प्रकार का आग्रह हो जाने से असत्य मार्ग की प्ररूपणा करना आभिनिवेशिक मिध्यात्व है, जो निहव हुए है, इस प्रकार के मिथ्यात्व वाले थे । अपने अज्ञान के कारण जिनवाणी का अर्थ न समझ कर, उसमें डगमगाते रहना सांशयिक मिथ्यात्व है । और, अनजान होने के कारण कुछ समझ न सकना श्रनाभोगिक मिथ्यात्व है । अव्यक्त एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सब जीर्वो को इस प्रकार का मिथ्यात्व होता है ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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