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________________ उन्नीसवाँ व्याख्यान वर्मबन्ध महानुभावो। आत्मतत्त्व का विवेचन करते हुए, कर्म का विषय आ उपस्थित हुआ । उसी का वर्णन चल रहा है । रामायण पढते समय रावण का और महावीर-चरित्र पढते हुए गोशाला का वर्णन आवे यह स्वाभाविक है । ___'कर्म' किसे कहते हैं और उसकी शक्ति कितनी है, यह हमने पिछले व्याख्यान में विस्तार से बतलाया । फिर भी विषय इतना गहन है कि अभी हमें इस पर बहुत-कुछ और कहना है। रङ्गभूमि पर खेले जाने वाले नाटको मे सजन और खल दोनो प्रकार के पात्र होते है । खल का काम सजन को तरह-तरह से सताना होता है। इस कार्य में वह अक्सर सफल भी होता है। पर, अन्ततः उसकी शक्ति कुठित हो जाती है और वह बुरे हाल से मरता है । ससार-रूपी-नाटक में भी ठीक ऐसा ही होता है। उसमें सजन की जगह आत्मा है और खल की जगह कर्म ! कर्मों का मुख्य कार्य, आत्मा को सताना है । इसमे वे अक्सर सफल हो जाते हैं, पर आत्मा की शक्ति ज्यों-ज्यों बढती जाती है, त्यों-त्यो 'कर्म' दुर्बल पड़ते जाते हैं और अंत मे नाश को प्राप्त होते हैं । अगर आत्मा अकेला होता, तो शुद्ध स्वरूपी होता; चिदानन्द अवस्था मे होता और अनन्तानन्त सुख का उपभोग करता होता । पर, वह अकेला _____ नहीं है, कर्म से युक्त है । कर्मबन्धन के कारण उसे एक गति से दूसरी गति मे ससरण करना पड़ता है और जन्म, जरा, व्याधि तथा मृत्यु के विभिन्न दु.ख भोगने पड़ते हैं। १८
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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