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________________ आत्मसुख २४५ सबसे छोटे लड़के के पास गये । वहाँ ग्राहको की धमाल मची हुई थी । सुनकर वह सब काम छोडकर दवा लेकर यहाँ दौडा आया । " यह सब गुरु महाराज सुन रहे थे । उन्हे उद्देश कर सेठ बोला"सुबह मैने आपसे कहा था कि मेरे एक ही लडका है । तब आपको लगा होगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ, पर अब आपको विश्वास हो गया होगा कि मेरे वास्तव में एक ही लड़का है । उसी तरह मेरे पास तीन लाख मोहरें है, लेकिन उनमें से एक लाख ही धर्ममार्ग में लगी है, इसलिए वे मेरी मेरी नहीं हैं। अगर आप यहाँ चौमासा करने की कृपा करेंगे है, ― तो एक लाख की जरूर टो लाख हो जायेगी । " सेठ के ये वचन सुनकर गुरुमहाराज सच्ची परिस्थिति समझ गये और बडे प्रसन्न हुए । उन्होने चौमासा करने की विनती स्वीकार कर ली । उस चौमासे मं धर्माराधन खूब अच्छी तरह हुआ और उसमे सेठ अग्रणी रहा । कहने का तात्पर्य यह कि धर्म मे जितना धन लगाओ, उतना आप का, बाकी नहीं । आप अपनी मौज-शौक या ऐश-आराम के लिए ही धन खर्च करेंगे, तो उससे कर्मचन्धन होगा और उसका कटुफल आपको अवश्य भोगना पडेगा । वस्तु की लालच से अगाति होती है, लालच न हो तो शांति रहती है । धर्मक्रिया मे वस्तु की लालच नहीं होती, इसलिए उसमें गाति है ! आत्मसुख का अनुभव कत्र होता है ? शात दशा न हो तब तक आत्मा का सुख नहीं मिलता । जैसे उद्वेलित गन्दे पानी मे चेहरा नहीं दीखता, स्थिर स्वच्छ जल में दीखता है; उसी प्रकार क्षयोपशम-भाव से कर्म-मल के बैठ जाने पर और मन के स्थिर होने पर आभ्यान्तरिक आत्मसुख, आत्मानन्द का यद्यपि यह आनन्द वीतरागी आत्मा के आनन्द का अनुभव होता है । अनन्तवाँ भाग है,
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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