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________________ ૬ श्रात्मतत्व-विचार आती ही रहती है । ऐसो को सवा मन रुई की रेशमी गद्दी भी आनन्द नहीं दे पाती । अक्सर वह धगधगातो चिता-सी लगती है । शास्त्रकारों ने सासारिक सुख को, इस विषय मुख को, मधुलित असि - धारा के समान, तलवार की धार पर लगे हुए शहद को चाटने के समान, बताया है । आदमी अनुकुल विपय से राग करता है, प्रतिकुल विपय से द्वेप करता है । यही सारी खराबी की जड है। तीखा खानेवाले को अलोना मिले और अलोना खानेवाले को तीखा मिले, अथवा ठडा चाहने वाले को गरम मिले और गरम चाहने वाले को ठंडा मिले तो दुःख होता है। पर, जिसे तीखा और अलोना, ठंडा और गरम समान है, किसी पर आसक्ति नहीं; उसे कुछ भी मिले कोई दुःख नहीं होगा ! लोग अनुकुल मानी हुई चीज को पाने के लिए और प्रतिकूल मानी हुई वस्तु को दूर करने के लिए अनेक प्रकार की प्रवृत्तियाँ करते हैं और उसमे प्राणातिपात से लगाकर मिथ्यात्वन्गल्य तक के पापस्थानो का सेवन करते हैं | क्या यह स्थिति गोचनीय नहीं है ? अनुभवियो ने बारम्बार कहा है- " जितना भोग, उतना रोग !" फिर भी भोगासक्ति कम नहीं होती। अगर, आपको रोग-व्याधिआतक से बचना हो, दुःखी न होना हो, तो भोग की तृष्णा को भेट डालो, छेट डालो | हम समझते हैं कि, हम भोग भोगते हैं, पर सच तो यह है कि भोग हमे भोग डालते हैं । इसीलिए भर्तृहरि - जैसे विरागी महात्मा को कहना पड़ा कि - 'भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः !" मासारिक मुख का लोभी जीव ऐसे चिकने कर्म बाँधता है कि, उनका फल भोगने के लिए उसे नरक - निगोढ में पैदा होना पडता है, तिच योनि में भ्रमना पड़ता है और मनुष्यादि योनियो में के दुःख भोगने पड़ते है । सासारिक मुखो के मजे भी बहुत प्रकार उडाने मं 'लेने
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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