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________________ प्रात्मा का खजाना ११७ का भव मिलने पर भी जो ज्ञान का विकास नहीं करते, उनके लिए गास्त्रकारो ने ये गन्द कहे है-- ज्ञान विना पशु सरोखा, जाणो णे संसार; ज्ञान आराधन थी लह्युं, शिवपद सुख श्रीकार । इस ससार में जो जानरहित है, जो अपने स्वाभाविक जान गुण का विकास नहीं करते, वे पशु तुल्य है। जिन्होने जान की आराधना उपासना की, उन्होने श्रीकार-जैसा मोक्ष पद प्राप्त किया। जान-मति, अक्ल के बिना सामान्य व्यवहार भी नहीं चलते; इसीलिए अनुभवी पुरुषो ने कहा है-"अपनी अक्ल न पहुँचती हो तो दूसरे की अक्ल लेनी चाहिए।" पदभ्रष्ट मत्री ने दूसरे की अक्ल ली, तो पुनः मत्री पद पर प्रतिष्ठित हुआ और मुखी हुआ । अक्ल लेनेवाले पदभ्रष्ट मंत्री की कथा एक राजा का मत्री सरल स्वभावी था, परन्तु नायब मत्री महा खटपटी था। चन्द्र के लिए राहु के समान वह मुख्यमत्री के खिलाफ रोज गजा के कान भरा करता। सतत घर्षण से रस्सी से पत्थर में भी निशान पड जाता है, तो जीवित मनुष्य की तो बात ही क्या है ? रोज बात भरने मे राजा भरमा गया और उसने मत्री को पदभ्रष्ट कर दिया और उसका स्थान नायत्र-मंत्री को दे दिया। परन्तु, नायब-मत्री को इतने से सन्तोष न हुआ। उसने अनेक प्रकार के दांव-पेचो से मत्री की सारी सम्पत्ति जब्त करा ली। मंत्री ने विचार किया-"अब इस गाँव मे रहना ठीक नहीं है। मत्रीपट गॅवाया, पैसा खोया, अब शायद जान की बारी आ जाये, इसलिए कहीं और चलकर किम्मत आजमायी जाये ।" उस वक्त उसके पास सिर्फ सवा सौ रुपये बचे थे, उन्हें लेकर दूसरे गाँव के लिए चल पडा । कुछ दिनों बाद वह एक शहर में पहुंचा। वहाँ एक दुकान देखी ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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