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________________ ११६ अात्मतत्व-विचार इस प्रकार पॉच जान और तीन अनान मिलकर नानोपयोग आट प्रकार का माना जाता है। दर्शन चार प्रकार का है : (१) चक्षुदर्शन, (२ ) अचक्षुदर्शन, (३) अवधिदर्शन और ( ४ ) केवलटर्शन । चक्षु के द्वारा वस्तु का सामान्य बोध होना चक्षुदर्शन है । चक्षु के. सिवाय दूसरी इन्द्रियो तथा मन के द्वारा सामान्य बोध होना, अचक्षुदर्शन है । इन्द्रिय और मन की सहायता बिना, आत्मा को रूपी द्रव्य का जो सामान्य बोध हो वह अवधिदर्शन है और आत्मा को केवलज्ञान हो जाने के बाद जो सामान्य उपयोग हो वह केवलढर्शन है। केवलज्ञान और केवलदगन साथ-साथ होते हैं। यहाँ आप प्रश्न करेंगे कि, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन ऐसे दो मेट क्यो किये ? इसका समाधान यह है कि, चक्षुदर्शन द्वारा सामान्य बोध होते हुए भी, वह दूसरी इन्द्रियो की अपेक्षा से विश्वस्त है इसलिए उसका भेद अलग गिना । "मनःपर्यवदर्शन' क्यो नही होता ?" यह प्रश्न भी आप के मन म उठेगा । परन्तु 'मनःपर्यवज्ञान' मात्र मनोगत भावनाओ का ही जान करता है, यानी उसका विषय है-आलोचनात्मक ज्ञान, मानसिक, अवस्थाओं का जान, इसलिए उसमें मनःपर्यवदर्शन नहीं होता। आट प्रकार का ज्ञानोपयोग और चार प्रकार का दर्शनोपयोग मिलकर कुल बारह प्रकार के होते है। आत्मा जब जानवर की योनि में जाती है, तब उसका ज्ञान मनुष्य की अपेक्षा कम हो जाता है। चार-इन्द्रिय में, उससे कम, तीन-इन्द्रिय में उससे कम, दो-इन्द्रिय मे उससे कम और एक-इन्द्रिय में उससे कम होना है । जैसे सोना घटते-घटते भी सोना ही रहता है, उसी प्रकार ज्ञान कम होते-होते भी आत्मा आत्मा ही रहता है। मनुष्य योनि में ज्ञान का बहुत विकास हो सकता है, टेठ केवलजान तक पहुँचा जा सकता है, इसीलिए उसे श्रेष्ठ भव गिना जाता है। मनुष्य
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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