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________________ आत्मा की संख्या ㄨˋ 3 शूरवीर तो कोई कायर; कोई परिश्रमी तो कोई आलसी, कोई गात तो कोई उग्र । सब जीवो की प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है। कोई अध्ययन-अध्यापन करता है, तो कोई शस्त्रसन होकर लडाई लडता है, कोई खेती करता है, तो कोई गोपालन करता है, कोई व्यापार करता है, तो कोई मजदूरी करता हैं । उसी तरह सबके सुख-दुःख का अनुभव भी भिन्न-भिन्न होता है । जब कि कुछ जीव गानतान में मस्त होकर आनन्द मनाते तो कुछ जीव करुण क्रन्दन करके अपना कष्ट प्रदर्शित करते हैं । कुछ साहित्य, संगीत और कला के द्वारा उच्च प्रकार का आनन्द मनाते हैं, तो कुछ गालीगलौज करके भारी कलह मचाते है और एक दूसरे को पीटकर दुःख उपजाते हैं। कुछ शरीर को सुन्दर वस्त्राभूषणों से सजाकर उत्सव में रंगरेलियाँ करते हैं, तो कुछ भयकर रोगो के भोग बने बिस्तर पर पड़े-पडे कराहते रहते हैं । इस प्रकार जीवों का स्वभाव, प्रवृत्ति और सुख दुःख के अनुभव में बड़ी तरतमता दिखायी देती है । अगर इस विश्व में एक ब्रह्म ही हो, तो सबकी उन्नति या अवनति साथ ही होनी चाहिए, लेकिन देखने में कुछ और ही आता है। एक जीव उन्नति के शिखर पर मालम होता है, तो दूसरा उन्नति के मार्ग पर मालूम होता है, तीसरा अवनति की ओर प्रयाण करता होता है, तो चौथा अवनति के निम्न स्तर पर पहुँच गया होता है । अगर इस विश्व में एक ब्रह्म ही व्याप्त हो, तो वध और मोक्ष - जैसी कोई वस्तु सभव न हो । जहाँ एक ब्रह्म हो वहाँ फिर बन्ध किसका हो ? अगर बन्ध माने तो दूसरी वस्तु स्वीकार करनी पड़े । 'हाथ पर पट्टी चॉधी' ऐसा कहें तो हाथ और पट्टी ऐसी दो वस्तुएँ सिद्ध होती हैं या नहीं ' उसी तरह जहाँ एक ब्रह्म ही हो वहाँ मोक्ष किसका हो ? कौन किससे छूटे ? 'बाड़े में से पाड़ा एक, छूटा होकर भागा छेक' ऐसा कहें तो वहाँ बाड़ा और पाड़ा ऐसी दो वस्तुओं का प्रतिपादन होगा या नहीं ?
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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