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________________ श्रात्मतत्व- विचार कुछ लोग कहते हैं कि इस लोक में, विश्व में, एक ब्रह्म ( आत्मा ) उनसे पूछे - "इस विश्व में अकेला ब्रह्म ही हो है, दूसरा कुछ नहीं है । तो ससार के प्रपच की प्रतीति किससे होती है ?" तो कहते है- 'माया Y से' । इसका अर्थ तो यह हुआ कि, इस विश्व में केवल ब्रह्म ही नहीं है, बल्कि माया नाम की एक दूसरी चीज भी है। 'यह माया कहाँ से आयी ?' यह पूछे तो कहते है- 'अविद्या के प्रताप से' । ' यह अविद्या क्या है ?' यह पूछे तो कहते हैं 'अज्ञान !' यह तो 'मरा नहीं कि फिर हुआ' जैसी बात है । माया कहो, अविद्या कहो या अज्ञान कहो, इससे परिस्थितियो मे क्या फेर पड़ा ? एक ब्रह्म के अलावा दूसरी चीज माननी ही पडी । यह दूसरी चीज क्या है ? कैसे आयी ? कहाँ से आयी ? इसका वे स्पष्ट खुलासा नहीं कर सकते | ८४ अगर इस विश्व में एक ब्रह्म ही हो, तो सब जीवो के स्वभाव समान होने चाहिए, सब की प्रवृत्ति भी समान चाहिए, और सबको सुख-दुःख का अनुभव भी एक-सा होना चाहिए। पर, हम देखते हैं कि जीवो का स्वभाव भिन्न-भिन्न रूप का होता है। कोई उदार तो कोई कृपण; कोई * श्रात्मा एक ही है ऐसा मत वेदान्तदर्शन का है। न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग, उत्तरमीमासा, आदि की मान्यता इससे भिन्न है । अगर आत्मा एक ही है तो ससार में प्रत्यक्ष दिसनेवाले अनेक जीवो का उसके साथ क्या सम्बन्ध है ? इसका स्पष्टीकरण जरूरी है । यह खुलासा करने का प्रयत्न ब्रह्मसूत्र के व्याख्यानकारों ने किया है। पर, उसमें एक मति कायम नहीं रखी गयी। शकराचार्य ने उसका खुलासा मायावाद से करने का प्रयत्न किया, तो भास्कराचार्य ने सत्योपाधिवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया । रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वाद पर जोर दिया, तो निम्बार्क ने द्वैताद्वैत यानी भेदाभेदवाद का समर्थन किया | मध्वाचार्य ने भेदभाव को स्वीकार किया. तो विज्ञानभिक्षु ने अविभागाद्वैत की घोषणा की । चैतन्य अचिन्त्य भेदाभेदवाद को प्राधान्य दिया, तो वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मार्ग की प्ररूपणा की । इस मतभेद का विशेष वर्णन देसना हो तो श्री गोविन्दलाल ह० भट्ट कृत 'ब्रह्मसूत्राणुभाग्य' के गुजराती भाषान्तर की प्रस्तावना देखें ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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