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________________ आत्मा की अखण्डता ६६ आत्मा सदा अखण्ड रहता है । वस्त्रादि कालान्तर में फटते हैं, टूटते है और उनके खण्ड-खण्ड हो जाते है । वस्त्रादि बिलकुल नये हो और उनके टुकडे करना चाहें तो चीरकर, फाडकर या तोड़कर कर सकने है। पर, आत्मा की स्थिति इनसे भिन्न है | चाहे जितना समय गुजर जाये, उसका कोई प्रदेशः हटता नहीं विलग नहीं होता और न उसके स्वरूप में कोई कमोबेगी होती है । उस पर चाहे जैसी क्रिया की जाये या चाहे जैसा प्रयोग किया जाये तो भी उसके खण्ड या टुकड़े नहीं होते । “नैनं छिद्यन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः" आदि वचन उसको इस अखण्डता, अमरता के कारण ही कहे गये है । इसका अर्थ यह समझना है कि, आत्मा भूतकाल में अखण्ड था, वर्तमान काल में भी अखण्ड है और भविष्य में भी वह अखण्ड ही रहेगा । आप कहेंगे कि, 'हाथी के शरीर में रहनेवाला आत्मा जब चींटी के शरीर में प्रवेश करता होगा, तब क्या होता होगा ? हाथी का शरीर बहुत बडा होता है और चींटी का शरीर बहुत छोटा होता है, इसलिए हाथी के शरीर में रहनेवाला आत्मा जब तक खड रूप न बने, तब तक कीडी के शरीर में कैसे प्रविष्ट हो सकता है ?' परन्तु ऐसा प्रश्न आत्मा का स्वरूप न समझने के कारण ही मन में उठता है । आत्मा संकोच - विस्तार - गुणधारी है आत्मा-जैसे अखंड है, वैसे सकोच - विस्तार - गुणधारी भी है । इसलिए, बड़े और छोटे सब शरीरो में उसकी अवगाहना के अनुसार व्याप्त रहता है अर्थात् हाथी के शरीर में रहनेवाला आत्मा जब चींटी के शरीर में प्रवेश करता है, तब सकुचित हो जाता है, पर वह खण्डित होकर छोटा * श्रात्मा के अति सूक्ष्म अश को प्रदेश कहते हैं ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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