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________________ प्राक्कथन 'अपभ्रंश और हिन्दी में जैन- रहस्यवाद' मेरे पी-एच० डी० की उपाधि के लिए स्वीकृत शोध-प्रबन्ध का मुद्रित रूप है । 'रहस्यवाद' शब्द अनेक शताब्दियों से बहुचर्चित रहा है तथापि आज भी रहस्यमय बना हुआ है । इसे किसी भी सर्वमान्य परिभाषा में बाँधा नहीं जा सका है। रहस्यवाद के नाम मे विभिन्न युगों में, विभिन्न देशों के साधकों और चिन्तकों ने, विभिन्न साधना प्रणालियों और विचारों को जन्म दिया है। किसी ने प्रकृति की उपासना को रहस्यवाद कहा, तो अन्य ने प्रिय प्रेमी रूप में आत्मा-परमात्मा की प्रणय-दशा का चित्रण ही रहस्यवाद समझा; किसी ने रहस्यवाद के नाम से अस्पष्ट और अटपटी वाणी में दूरारूढ़ कल्पनाओं को जन्म दिया, तो अन्य ने सहज सरल ढंग से ब्रह्म की अनुभूति को रहस्यवाद बताया; किसी ने रहस्यवाद के द्वारा प्रज्ञा- उपाय और कमल- कुलिश साधना का प्रचार किया, व्यभिचार और काम-वासना को खुलकर बढ़ावा दिया, तो अन्य ने चित्त शुद्ध करके, मन को नियन्त्रित करके, बाह्य विधानों की अपेक्षा आन्तरिक भाव से देह- देवालय में स्थित परमात्मदेव के दर्शन की बात कही; किसी ने हठयोग की साधना द्वारा शरीर को तपाकर गलाने में ही रहस्यवाद माना, तो अन्य ने सहज भाव से विषय त्याग करके परमात्मा का अनुभव रहस्यवाद का लक्षण घोषित किया। इस प्रकार रहस्यवाद शब्द का निरन्तर अर्थ सीमा विस्तार होता रहा । अपने देश में रहस्य - परम्परा अति प्राचीन काल से पाई जाती है । उपनिषद् इस विचार धारा के आदि स्रोत बताए गए हैं। इसके पश्चात् योगियों, तांत्रिकों, सिद्धां, नाथों और हिन्दी, मराठी आदि भाषाओं के सन्तों में अविच्छिन्न रूप से यह साधना पद्धति कई शताब्दियों तक प्रवहमान रही । मध्यकाल में इस पद्धति को विशेष बल मिला । वस्तुतः हम मध्ययुग को रहस्य साधना का युग कह सकते हैं । जैन दर्शन अन्य दर्शनों से मूलतः भिन्न है । संसार, आत्मा, परमात्मा, कर्म, मोक्ष आदि के सम्बन्ध में उसकी धारणाएँ अन्य साधना -सम्प्रदायों से भिन्न हैं । अतएव जैन-रहस्यवाद का प्रारम्भ और विकास भी दूसरे ढंग से हुआ है। लेकिन यह एक सर्वविदित सत्य है कि सम-सामयिक विचारक किसी न किसी रूप में एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं । कोई भी सिद्धान्तवादी अपने को कितना ही शुद्ध और निर्लिप्त बनाए रखने की चेष्टा क्यों न करे, वह जाने अनजाने दूसरों से प्रभावित अवश्य होता है । सभी देवों के दर्शन और संस्कृति के इतिहास इसके साक्षी हैं। अतएव जैन रहस्यवाद
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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