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________________ तृतीय अध्याय वर्तमान हिन्दी साहित्य से उनका परम्परागत सम्बन्ध वाक्य और अर्थ से स्थानस्थान पर स्पष्ट होगा। भाषा के विकास क्रम में ऐसा ममय भी आता है जब कि एक भाषा अपने स्थान से हटने लगती है और दुमरी भाषा उमका स्थान ग्रहण करने के लिए मक्रिय हो उठती है। इसको भापा का संक्रान्ति युग कहते हैं । ऐसे संक्रान्ति युग संस्कृत-पालि, पालि-प्राकृति, प्राकृत-अपभ्रंग और अपभ्रंशहिन्दी के बीच में पाए हैं। छठी शताब्दी को प्राकृत-अपना का संक्रान्ति-युग माना जाता है, जब कि प्राकृत के स्थान पर अपभ्रंग साहित्यिक भापा का स्थान ले रही थी और कविगण अपभ्रंश की ओर झुक रहे थे। किन्तु अभी अपभ्रंग का स्वरूप-निर्देश नहीं हो सका था। उसके अनेक प्रयोग प्राकत के से थे । योगीन्दु मुनि के परमात्मप्रकाग' और विशेष रूप से 'योगमार' की जो भापा है, उसे हम छठी शताब्दी की भाषा नहीं मान सकते, क्योंकि उस समय की भाषा में अचानक इतनी वियोगात्मकता और सरलता आ जाय (जैमी की पोगसार में है) इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। योगमार के कुछ दोहों से स्पष्ट हो जाएगा कि वे हिन्दी के कितने निकट है : देहादिउ जे परि कहिया ते अप्पाणु ण होहिं । इउ जाणे विण जीव तुहं अप्पा अप्प मुहिं ॥११।। चउरासी लक्खहि फिरिउ कालु अणाइ अणंतु । पर सम्मतु ण लद्ध जिय एहउ जाणि णिभंतु ॥२५॥ उक्त दोहों में देहादिउ, जे, परि, ते, होहिं, जीव, तुहूं, चउरामी, लक्खहि, कालु, जिय आदि शब्द लगभग हिन्दी के ही हैं। हेमचन्द्र ने अपने सिद्ध हेमचन्द्र दादानुशासन' के आठवें अध्याय में प्राकृतअपभ्रंश व्याकरण पर विचार किया है । उन्होंने व्याकरण की विभिन्न विशेषताओं के प्रमाण रूप में अपभ्रंश की रचनाओं को उद्धृत किया हैं। ये उद्धरण पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों की रचनाओं से लिए गए हैं। हेमचन्द्र का समय सम्वत् ११४५ से सं० १२२९ तक माना जाता है। अधिकांश उद्धरण आठवीं, नवीं और दसवीं शताब्दी के हैं। परमात्मप्रकाश के भी तीन दोहे थोड़े अन्तर के साथ हेमचन्द्र के व्याकरण में पाए जाते हैं। वे दोहे नीचे दिये जा रहे हैं। इससे १. चन्द्र धर शर्मा गुलेरी - पुगनी हिन्दी, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, प्र० संस्करण, संवत् २००५, पृ० १३० । २. परम०प्र०: संता विसय जु परिहरइ बलि किजउं हउं सामु । सो दइवेण जि मुन्डिय उ सीसु खडिल्लउ जासु ।।१३।। हेम० व्याकरण :संता भोग जु परिहर इ तसु कन्तहो बलि कीम् । तमु दइवेण वि मुण्डयउं जसु ग्ब लडउं सं सु ॥ x
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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