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________________ तृतीय अध्याय आठवीं शताब्दी मे १५वीं-१६वीं शताब्दी तक अनेक जैन मुनियों ने इनी भाषा में अपनी रचनाओं का प्रणयन किया। इनमें योगीन्दु मुनि का नाम सर्वप्रथम आता है, जिन्होंने परमात्मप्रकाश और योगमान नामक ग्रन्थों की रचना की। योगीन्द्र मुनि उच्च कोटि के मन्त थे। उन्होंने नंकीर्ण मन-मतान्तरों तथा साम्प्रदायिक विवादों में न उलझकर, स्वानुभूति और स्वसंवेद्य ज्ञान को प्रमुखता दी। उन्होंने जिस चरम सत्य का अनुभव किया. उमेयष्ट और निर्भीक शब्दावली में अभिव्यक्त किया। आपकी रचनाओं में यदि जैन विशेषण हटा दिया जाय तो उनमें और समकालीन सिद्ध रचनाओं में कोई अन्तर न रह जाएगा। योगीन्दु मुनि के पश्चात मुनि गमसिंह, लक्ष्मीचन्द्र, आनन्दतिलक. मयंदिण और छीहल आदि प्रमुख कवि हुए, जिनकी रचनायें विशुद्ध रहम्यवाद की कोटि में आती है। मनि गसिंह १२वीं शताब्दी के ववि थे। इनका 'दोहापाहुड' प्रसिद्ध ग्रंथ है। आपने जैन निन्द्वानों और मान्यताओं श्री बंधी बंधाई परिपाटी का ही अन्धानुकरण नहीं किया है और न उनकी प्रत्येक बान को स्वीकार ही किया है। उनके समय में जैन धर्म में भी जो वाह्याडम्बर और पापण्ड का प्रवेश हो गया था, आपने उनका स्पष्ट विरोध किया। यही नहीं सहज समाधि, समरसी भाव आदि जैन तर परिपाटियों. अवस्थाओं और भावों का अनुमोदन किया। लक्ष्मीचन्द्र, आनन्दतिलक और मयंदिण मुझे खोज में प्राप्त हुए नए कवि हैं।' लक्ष्मीचन्द्र ने ११वीं शताब्दी में 'दोहाणवे हा की रचना की थी। आनन्दतिलक ने बारहवीं शताब्दी में 'आणंदा नामक एक छोटा काव्य लिवा था और महयंदिण का विशाल काव्य-ग्रन्थ 'दोहापाड प्राप्त हुआ है। इसमें ३३४ दोहा छन्द हैं। मूनि राममिह के दोहापाहड' के ममान यह भी रहस्यवाद का अच्छा ग्रन्थ है। छीहल १६वीं शताब्दी के करीव के हैं। आपकी पंचसहेली' और 'छीहल बावनी' हिन्दी साहित्य में काफी प्रसिद्ध हैं। डा० शिव प्रसाद सिंह ने अपने शोधप्रबंध 'सूरपूर्व ब्रज भापा और साहित्य में छीहल पर विस्तार से विचार किया हैं। छीहल शृङ्गारी कवि के रूप में ही प्रसिद्ध रहे हैं। किन्तु उनकी एक अन्य रचना 'आत्म प्रतिवोध जयमाल' रहस्यवादी काव्य की कोटि में आती है। यद्यपि कवि ने इस रचना में अपना नाम कहीं पर भी नहीं दिया है तथापि यह रचना उन्हीं की मानी जाती है। राजस्थान के जैन शास्त्र भांडारों की ग्रन्थसूची (द्वितीय भाग) में इसके कवि छीहल ही बताये गये हैं। डा० शिव प्रसाद सिंह को प्राप्त प्रति में कवि का नाम छीहल ही दिया गया है। जैन साहित्य के अधिकारी विद्वान् पं० चैन सुखदास (अध्यक्ष, दिगम्बर जैन संस्कृत कालेज, १. इनका विस्तृत परिचय आगे दिया जा रहा है। २. देखिये, दु० शिव प्रसाद सिंह-मूर पूर्व ब्रज भाषा और माहित्य (पृ० १६७ से १७१ तक)।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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