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________________ २४ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद दार्शनिक ग्रन्थ हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द का परवर्ती साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। योगीन्दु मुनि और मुनि रामसिंह आपको रचनाओं से विशेष रूप से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं।' प्राचार्य कुन्दकुन्द के बाद प्राकृत भाषा के कवियों में मुनि कार्तिकेय का नाम आता है। श्री विन्टरनित्ज़ ने इनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग माना है। इनका लिखा स्वामी 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' श्रेष्ठ ग्रंथ है, जिसमें १२ अनुप्रेक्षानों में आत्मा, परमात्मा, संसार की नश्वरता, प्रास्रव, संवर, निर्जरा आदि का विशद वर्णन है। मंस्कन में: संस्कृत में रहस्यवादी काव्य लिखने वालों में पूज्यपाद का नाम विगतमा उल्लेखनीय है। आप तीसरी शताब्दी उत्तरार्ध और चौथी शताब्दी प्रथमार्घ में विद्यमान थे और वैद्यक, रसायन, व्याकरण, न्याय, सिद्धान्त आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थों की रचना की। समाधितन्त्र अथवा समाधिशतक, आपका सुन्दर आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसके अनेक श्लोकों का योगीन्दु मुनि के परमात्म प्रकाश पर स्पष्ट प्रभाव है। श्री ए० एन० उपाध्ये ने परमात्म प्रकाश की भूमिका में इस प्रभाव को स्वीकार किया है। समाधिशतक के अतिरिक्त जैनेन्द्र व्याकरण, वैद्यक शास्त्र, सर्वार्थसिद्धिः, इप्टोपदेश, आदि आपके प्रमुख ग्रन्थ हैं। अापके 'समाधितंत्र' के ही समान हिन्दी में १८वीं शताब्दी में यशोविजय मुनि ने भी 'समाधिन्त्र' की रचना की। अपभ्रंश में : अपभ्रंश भाषा रहस्यवादी साहित्य की दृष्टि से काफी समृद्ध है। सरह, कण्ह आदि सिद्धों ने इसी भाषा को चुना, नाथों ने इसी भाषा को अपनाया और 1. "A closer comparision would reveal that Yogindu has inherited many ideas from Kunda Kund of venerable name." (Shri A. X. L'padhe-Introduction of P. Prakasa, Page 27, 2. Karttikeya Samin, whose Kattigeyanupek kha ( Karttikeyanupr eksa enjoys a great reputation among the Jains, probably also belongs to this earlier period (Early Centuries of Christian cra - History of Indian Literature ( Vol II ) Page 577. ३. स्वामी कार्तिकेय-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, भारयीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, श्याम बाजार, कलकत्ता, प्र० श्रावृत्ति, वीर निर्वाण सम्बत् २४४७ । ४. श्री पूज्यवाद-ममाधितन्त्र, वीर सेवा मंदिर, सरसावा, सहारनपुर, प्र० संस्करण (वि० सं० १६६६) 7. "It is to Kundakund. and Pujyapada, so faz as I have been able to study earlier works, that Yogindu is greatly indebted." Page 27.)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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