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________________ द्वादश अध्याय २६७ (१) अनेक अज्ञात कवि और रचनाएं प्रकाश में भाई। नए कवियों में आनन्दतिलक, लक्ष्मीचन्द और महयंदिण तथा ब्रह्मदीप (हिन्दी) उल्लेखनीय हैं । नई रचनाओं में अध्यात्म चा (द्यानतराय), अध्यात्मं सवैया (रूपचन्द), प्राणंदा ( श्रानन्दतिलक), प्रात्म प्रतिबोध जयमाल ( छोहल), उपदेशदोहाशतक ( पाण्डे हेमराज ), खटोलना गीत ( रूपचन्द ) दो ( महयंदिण मुनि), परमार्थ दोहा दातक ( रूपचन्द), मनकरहारास ( ब्रह्मदीप ) और मांझा (बनारसीदास ) आदि प्रमुख हैं। इनमें महयंदिण मुनि के के शीघ्र प्रकाशित होने की नितान्त आवश्यकता है । (२) जैन कवियों द्वारा हिन्दी साहित्य के निर्माण, विकास और श्रीवृद्धि में काफी सहायता मिली है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल और मध्यकाल में उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा हिन्दी भाषा और साहित्य दोनों की महत्वपूर्ण सेवा की है। अपभ्रंश भाषा के विकास और उसके साहित्य भाण्डार के उन्नयन में जैन कवियों का पूरा हाथ 1 (३) हिन्दी संत कवियों, विशेष रूप से वीरवाल की विचारधारा के पल्लवन में सिद्धों और नाथों के अतिरिक्त जैन कवियों का भी प्रभाव रहा है। योगीन्दु मुनि, मुनि रामसिंह और कबीर के विचारों में अद्भुत साम्य है। यही नहीं कबीर और अन्य संतों ने १७वीं शती के जैन कवियों को भी प्रभावित किया था। कबीरदास और संत आनन्दघन के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है । इसी प्रकार संत सुन्दरदास और जैन कवि बनारसीदास के विचार भी एक दूसरे से मिलते हैं । (४) अपभ्रंश और हिन्दी में रहस्यवादी काव्य की अविछिन्न परम्परा प्रकाश में आई है । इस प्रकार प्राचीन युग में जिस स्वानुभूति प्रधान गुह्य साधना का आरम्भ हुम्रा, वह मध्यकाल से होती हुई वर्तमान समय तक चली आई है। (५) जैनों पर प्राय: यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उनकी रचनाएँ धार्मिक संकीर्णता से ग्रस्त हैं । उनमें केवल शुष्क उपदेश और नीरस सिद्धान्तों का पिष्टपेषण हैं । अतएव वे साहित्य की सीमा में नहीं आतीं। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन रचनाएँ मात्र नीरसता और शुष्कता का भाण्डार नहीं हैं अपितु उनमें भी काव्य रस का चरम परिपाक मिलता है और किसी भी भाषा के वे गौरव ग्रंथ बन सकते हैं । (६) यह भी स्पष्ट होता है कि रीतिकाल केवल 'श्रृङ्गार काल' हो नहीं था, अपितु उस युग में भी आनन्दघन, भैया भगवतीदान और द्यानतराय सदृश श्रेष्ठ संत कवि हुए अर्थात् जिस समय अन्य कवि श्रृङ्गार वर्णन द्वारा काम भावना का प्रसार कर सामन्तों और दरबारियों की विलास लिप्या की तृप्ति में सहायक बन रहे थे, उस समय भी जैन कवि राजकीय ऐश्वर्यों और माथिक
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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