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________________ द्वादश अध्याय उपसंहार इस अध्ययन के पश्चात् हम यह कह सकने की स्थिति में आ गए हैं कि जैन कवियों और लेखकों द्वारा भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी में संख्या और स्तर दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण कार्य किए गए हैं। मैंने उनके कार्य के एक पक्ष का ही अध्ययन किया है । लेकिन राजस्थान के विभिन्न शास्त्र भाण्डारों के निरीक्षण से पता चलता है कि उनके द्वारा गद्य-पद्य में विभिन्न विषयों पर रचनाएँ लिपिबद्ध हुई हैं । अपभ्रंश भाषा का विशाल, किन्तु अप्रकाशित, साहित्य उनके योगदान का साक्षी है । उन्होंने चरितकाव्य, रासाकाव्य, बावनीकाव्य, चौबीसी, बत्तीसी आदि अनेक काव्यपद्धतियों को जन्म दिया और प्रभूत मात्रा में लौकिक पौराणिक आख्यानों के सहारे खण्डकाव्यों, चम्पूकाव्यों और महाकाव्यों की रचना की । लेकिन प्रश्न उठता है कि फिर भी साहित्य में उनको उचित स्थान क्यों न मिल सका ? उनकी क्यों उपेक्षा हुई ? मेरे विचार से इसके तीन कारण हो सकते हैं : १. अधिकांश सामग्री का अप्रकाशित एवम् हस्तलिखित रूप में होना । २. जैन मुनियों और धर्माचार्यों की संकीर्णता के कारण उसके अध्ययन में कठिनाइयाँ । ३. उपलब्ध सामग्री के भी समुचित अध्ययन के प्रति रुचि का प्रभाव | इस अध्ययन के परिणामस्वरूप कई तथ्य प्रकाश में आए हैं, जिन्हें संक्षेप में इस प्रकार रक्खा जा सकता है। -.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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