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________________ नवम अध्याय २१५ और मत्स्येन्द्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे तथा सम-सामयिक थे । जालन्धरनाथ ही 'नाथ' मत के आदि प्रवर्तक माने जाते हैं । अतएव नाथ सम्प्रदाय का आविर्भाव नवीं शताब्दी के लगभग हुआ होगा । 'नाथ सिद्धों की बानियाँ' में जिन चौबीस नाथ सिद्धों की रचनायें संग्रहीत हैं, उनमें चौरंगीनाथ को गोरखनाथ का गुरु भाई बताया गया है, नागार्जुन के बारहवीं शताब्दी में होने का अनुमान किया गया है, का शिष्य कहा गया है। इसी प्रकार काणेरी को गोरखनाथ का स जालन्धरपाव को कृष्णपाद का शिष्य, अजयपाल को चौदहवीं शताब्दी के बाद का, लक्ष्मणनाथ की तेरहवीं शताब्दी का और घोड़ाचोली को बारहवीं शती का सिद्ध बताया गया है । दत्त जी तथा पृथ्वीनाथ जैसे कुछ लोग १५वीं - १६वीं शती में भी हुए। इससे अनुमान होता है कि नाथ सिद्धों का चार-पांच सौ वर्षो तक काफी जोर रहा। नाथ सिद्धों का प्रभाव : धर्म साधना में 'योग' का पहले से ही महत्वपूर्ण स्थान था और बुद्ध तथा महावीर तक इस ओर पहले से ही आकृष्ट हो चुके थे, किन्तु मध्यकालीन धर्म साधना पर 'नाथ मत' का व्यापक प्रभाव पड़ा। बौद्ध, शैव, शाक्त, जैन आदि सभी मतावलम्बी इस साधना की ओर आकृष्ट हुए । अनेक वज्रयानी सिद्ध भी इधर चले आए। जैन मुनियों ने भी इनकी शब्दावली एवं साधना की कतिपय विशेषताओं को अपनाया तथा आगे चलकर हिन्दी 'निर्गुनियाँ' संतों, विशेष रूप से, कवोर के मार्ग निर्धारण में इसने बहुत बड़े आधार का कार्य किया । काबुल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल तथा महाराष्ट्र तक फैली नाथ पंथ की गद्दियाँ उनके प्रभाव - विस्तार की साक्षी हैं । नाथ साहित्य और जैन काव्य : जैन रहस्यवादी कवियों तथा नाथ सिद्धों की रचनाओं में अनेक प्रकार की समानता देखने को मिलती है। प्रत्येक रहस्यवादी में कतिपय साधना विषयक समानताओं का होना तो स्वाभाविक ही है, इसके अतिरिक्त जैन मुनियों ने 'नाथ सम्प्रदाय' के कुछ शब्दों को भी अपना लिया तथा एकाध ने उनकी पद्धति के अनुसार अपने को मोड़ने का भी प्रयत्न किया। जैनों में 'योग' का तो पहले से ही प्रभाव था, स्वयं महावीर स्वामी भी उस ओर प्रवृत्त हुए थे । इसके अतिरिक्त नेमिनाथ और पार्श्वनाथ, जो गोरखनाथ के पूर्ववर्ती थे, योग से काफी प्रभावित थे । परवर्ती जैन मुनियों पर भी इस योग साधना का प्रभाव पड़ा । योगीन्दु मुनि ने प्रायः 'योगी' को सम्बोधित करके ही अपनी बात कही है । १. देखिए - - नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ० २० से २५ तक ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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