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________________ . मौर है, जो उपरले स्तर के.प्रावरणों से भिन्न है। वह न तो इन्द्रियार्थों की प्राप्ति से सन्तुष्ट होता है, न मानसिक स्तर की तृप्ति से आश्वस्त होता है और न बौद्धिक विदलेपण से परितृप्त होता है। उसकी प्यास कुछ और ही तरह की है।" इस पिपासा की शान्ति न तर्क से हो सकती है, न मन से, न इन्द्रियों से और न विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति से। इनसे भी परे एक सत्ता है, जिसे हम अध्यात्म सत्ता कह सकते हैं । जहाँ हमारी समस्त शक्तियाँ असामर्थ्य प्रकट करती हैं, जब हमारा ऐन्द्रिक व्यापार नैरादयोन्मुख होने लगता है, तब हम अध्यात्म सत्ता अथवा अन्तान केही सहारे विश्व रहस्य को खोलने में समर्थ होते हैं। बान्ड रसेल नामक प्रमुख दार्शनिक ने इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है कि "प्रकाश के क्षण का प्रथम और प्रत्यक्ष परिणाम. ज्ञान के एक ऐसे मार्ग की सम्भावना में विश्वास है. जिसे दैवीज्ञान, परिज्ञान या अन्तर्ज्ञान कहा जा सकता है और जो इन्द्रियज्ञान, तर्क और विश्लेपण से भिन्न हैं"। भारतीय दृष्टा ऋषि और वेदान्ती भी इसी शक्ति अथवा वृत्ति के अस्तित्व की घोषणा प्राचीन काल से करते आ रहे हैं। इसे वे साक्षात् ज्ञान, अनुभव ज्ञान अथवा अपोरक्षानुभूति कहते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से 'दिव्यचक्षु' की बात कही है, जो सम्भवतः उसी ज्ञान की ओर संकेत है : न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् । (अध्याय ११, श्लोक ८) उपनिषद् मूल स्रोत प्राचीन तत्वदृष्टा ऋषियों को इसी शक्ति के द्वारा परमतत्व की उपलब्धि होती थी। उपनिषदों में कई वार आया है कि वह चरम तत्व केवल अध्यात्मयोग अथवा महानुभूति के द्वारा ज्ञातव्य है, स्थूल इन्द्रियों अथवा बुद्धि से कभी प्राप्त नहीं हो सकता। मंडकोपनिषद के अनुसार ब्रह्म न आँखों से, न वचनों से, न तप से और न कर्म से गृहीत होता है। विशुद्ध सत्व धीर व्यक्ति उसे ज्ञान १. प्रो. रामपूजन तिवारी-सूफीमत साधना और साहित्य (भूमिका, पृ० ग-ले. डा० हजारी प्रसाद द्विवेद)। 2. The first and most direct outcome of the moment of illumination is belief in the possibility of a way of knowledge, which may be called revelation or insight or intution as contrasted with sense, reason and analysis. Bertrand Russell--Mysticism and Logic, Page 16. Penguin Books, Reprinted 1954.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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