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________________ प्रास्ताविक रहस्यवाद का मूल-जिज्ञासा मानव स्वभाव से जिज्ञासु है। वह आदि काल से चरम सत्य को जानने की चेष्टा करता रहा है। उसमें विश्व के आदि और अवसान की जिज्ञासा निरन्तर प्रवहमान रही है। सृष्टि चक्र की धूरी कहाँ है ? उसका चालक कौन है ? परम सुख की प्राप्ति कैसे की जा सकती है ? इन प्रश्नों ने प्रत्येक देश के मनीषियों का ध्यान चिरकाल से उलझा रक्खा है और व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण शक्ति से इसको सुलझाने में प्रयत्नशील रहा है। मनुष्य की वह जिज्ञासा जो उसे सूक्ष्म तत्वों की ओर उन्मुख करती है-जीवन की उत्पत्ति, लक्ष्य आदि को जानने के लिए प्रेरित करती है-अध्यात्म दर्शन की जननी होती है। अध्यात्म तत्व के जिज्ञासु, तत्वदर्शी ऋषियों के पास जाकर प्रश्न पूछते थे कि किसके जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है ?" 'आत्मा नित्य है अथवा अनित्य ?" यह अध्यात्म अथवा विश्व परिज्ञान की भावना मानव की दो भिन्न प्रवत्तियों के संगठन एवं विरोध से विकसित हई है, जिसमें से एक विज्ञान की ओर ले जाती है और दूसरी 'रहस्यवाद' की ओर। सामान्यतया व्यक्ति प्रत्येक वस्तु को अपने बौद्धिक मापदण्ड से आँकना चाहता है। किन्तु मनुष्य का अनुभव बतलाता है कि बौद्धिक विवेचन में ही मानव जीवन की चरितार्थता नहीं है। 'और भी गहराई में कुछ १. कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ( मुंडक १, १, ३)। २. यंयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येको नायमस्तीति चैके ( कठ० १।२।२०)।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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