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________________ बाला सुरक्षित कैसे रह सकता है ? इसलिए पंचेन्द्रिय रूपी करभ को स्वत: विचरण करने के लिए स्वतन्त्र रूप से नहीं छोड़ देना चाहिए, अन्यथा वह विषय वन में चरते हुए जीव को संसार में ही पटकता रहेगा । चित्त-रूपी बन्दर के चपल होने से ही व्यक्ति शुद्धात्मा की अनुभूति नहीं कर पाता, इसीलिए ध्यान की गति भी विषम बताई गई है। योगीन्दु मुनि इसीलिए उस संत की बलि जाते हैं जो विषयों का स्वतः परित्याग कर देता है । गंजे सिर की प्रशंसा क्यों की जाय वह तो दैव से ही मुंडित हैं । जो विद्यमान विषयों की उपेक्षा करके बीतराग मार्ग का अनुसरण करते हैं, वे श्रद्धा के पात्र हैं । किन्तु जिसके पास कुछ सामग्री है ही नहीं, फिर भी उसका अभिलाषी हो रहा है, वह निन्द्य है ।' इन्द्रियों से जो सुख मिलता भा है, वह पराधीन है, बाधा सहित है, नाश होने वाला है, पापबंध का कारण है, चंचल है, अतएव दुःखरूप है । और फिर जब जीव पंचेन्द्रियों के नेह में पड़ जाता है तब उसे अपने स्वरूप की चिन्ता भी नहीं रहती है । रहे भी कैसे ? जो शत्रु से मिल गया, वह स्वजनों की हित चिन्ता कैसे कर सकता है ? 3 मन : मन को पांचो इन्द्रियों का नायक माना गया है । चक्षु, श्रोत्रिय, प्राण, रसना तथा त्वचा पंचेन्द्रिय हैं । ये रूप, शब्द, गंध, रस तथा स्पर्श के द्वारा विषय सुख 'में जीव को फँसाए रखती हैं । किन्तु मन इनका भी नायक माना गया है । मन द्वारा ही ये संचालित होती हैं । यदि मन पर नियन्त्रण प्राप्त हो जाए तो अन्य इन्द्रियाँ स्वतः वशीभूत हो जाती हैं। मन की हार से ही हार और मन को जीतने से ही जीत है । इसलिए कबीर आदि संतो ने तथा सिद्धों और नाथ पंथी योगियों ने मन के नियन्त्रण पर विशेष जोर दिया है। जैन कवियों द्वारा भी मन को सबसे बड़ा शत्रु माना गया है और उसको वश में करने पर जोर दिया गया है । योगीन्दु मुनि कहते हैं कि पांच इन्द्रियों का स्वामी मन है, जो कि रागादि - विकल्प - रहित - परमात्मा को भावना से विमुख होकर विषय १. २. ३. संता विषय जु परिहरइ बलि किज्जउं हउं तासु । सों दइवेण जि मुँडियउ सीसु खडिल्लउ जासु || १३६|| ( परमात्म०, द्वि० महा०, पृ० २८३ ) सपरं बाधासहिदं बंध कारणं विसमं । जं इंदिए, हिलद्धई तं सोक्खं दुक्खमेत्र तथा । । १०६॥ ( कुन्दकुन्द ० --प्रवचनसार ) पंचहि बहिरु णेडउ हलि सहि लग्गु पियस्स । तामु ण दीसइ आगमणु जो खलु मिलिउ परस्स !!४५|| ( पाहुड़दोहा )
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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