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________________ १३२ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद एहु ववहारे जीवडउ लहेविणु कम्मु । बहुविइ भावें परिणबइ तेण जि धम्मु अहम्मु ॥६०॥ (मुनियोगीन्दु-परमात्म प्रकाश) किन्तु निश्चयनय में आत्मा न पाप करता है न पुण्य । वह न तो सत्कर्म में प्रवृत होता है और न असद् कर्म में। वस्तुत: कर्म का कारण शरीर होता है। शरीर द्वारा नानाविध कर्म किए जाते हैं और तदनुकूल फलों का जन्म होता है। आत्मा तो निर्विकल्प समाधि में स्थित हुग्रा वस्तु को वस्तु के स्वरूप देखता है, जानता है, रागादिक रूप नहीं होता। वह ज्ञाता है, दृष्टा है, परम आनन्द रूप है । योगीन्दु मुनि ने कहा है : दुग्वु वि सुक्खु वि बहु विहउ जीवह कम्मु जणेइ । अप्पा देखइ मुणइ पर णिच्छउ एउं भणेइ ॥६४॥ ( परमात्मप्रकाश, प्रथम ख०) व्यवहारनय से आत्मा द्रव्य कर्म बन्ध, भाव कर्म बन्ध और नौ कर्म बन्ध में फंसता रहता है, पुनः यत्न विशेप से कर्म बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होता है, किन्तु पारमार्थनय से आत्मा न तो कर्म बन्ध में फँसता है और न उसका मोक्ष होता है । वह बन्ध मोक्ष से रहित है : वन्धु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहं कम्मु जणेइ । अप्पा किंवि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउं मुणेइ ॥६५॥ (परमात्मकःश, प्र० ख०) श्री योगीन्दु मुनि ने ठीक ही कहा है कि यह आत्मा पंगु व्यक्ति के समान है। वह स्वयं न तो कहीं जाता है और न पाता है। तीनों लोकों में इस जीव को कर्म ही ले जाता हैं अर्थात् यह प्रात्मा शुद्ध निश्चयनय से अनन्तवीर्य का धारण करने वाला होने से शुभ कर्म रूप बन्धन से रहित है, फिर भी व्यवहारनय से इस अनादि संसार में मन, वाणो, काया से उत्पन्न कर्मों द्वारा, पंगु व्यक्ति के समान, इधर उधर ले जाया जाता है अर्थात् बाह्य दृष्टि से आत्मा, परमात्मा की प्राप्ति को रोकनेवाले चतुर्गति रूप संसार के कारण रूप से जगत में गमन प्रागमन करता है : अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ । नुवणतयह वि मज्मि जिय विहि आणइ विहि जेइ ॥६६॥ (परमात्मप्रकाश, प्र० ख०) आत्मा न उत्पन्न होता है, न मृत्यु को प्रात होता है और न बन्धमोक्ष को प्राप्त होता है। शुद्ध निश्चयनय से आत्मा केवल ज्ञानादि अनन्त गुणों से पूर्ण है, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय से मुक्त है, वह न स्त्री लिग है न पुल्लिग अथवा नपुंसक लिंग। वह श्वेत, कृष्ण आदि वर्गों से भी परे है। वह आहार, भय, मैथुन आदि परिग्रह से विरत है। ऊपर गिनाए गए अनेक प्रकार के वर्णो, रोगों आदि से वेष्टित रहनेवाले पदार्थ की संज्ञा देह है। पंचतत्वों से निर्मित शरीर ही समस्त विकारों का गह
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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