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________________ ६६ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद सम्पूर्ण' लिखा है । अन्तिम १०१ नं० के दोहे में कवि ने अपना नाम भी दे दिया है। रूपचन्द सद्गुरन की जन बलिहारी जाइ । पुन जे सिवपुर गए, भन्यन पंथ लगाइ ॥। १०१ ।। 'दोहपरमार्थ' के प्रारम्भिक दोहों में कवि ने विषय वासना की अनित्यता, क्षणभंगुरता और प्रसारता का वर्णन किया है। प्रत्येक कवि ने विषय जनित दुःख तथा उसके उपभोग जनित है और दूसरे चरण में उपमा अथवा उदाहरण के है । जैसे : दोहे के प्रथम चरण सन्तोष का वर्णन किया द्वारा उसकी पुष्टि की विषयन सेवत हउ भले, तृष्णा तउ न बुझाइ | जिमि जल खारा पीवत, वाढइ तिस अधिकाइ ||४|| विपयन सेवत दुःख बढ़इ, देखहु किन जिय जोइ | खाज खुजावर ही भला, पुनि दुःख दूनउ होइ ॥ ॥ सेवत ही जु मधुर विषय, करुए होहिं निदान | त्रिष फल मीठे खात के, अंतहिं हरहिं परान ||११|| विषय सुखों की अवास्तविकता का रहस्योद्घाटन करने के पश्चात् कवि 'सहज सुख' का वर्णन करता हैं, जिसके प्राप्त होने पर सभी प्रकार के प्रभावों का तिरोभाव हो जाता है और आत्मा परमसुख का अनुभव करता है । कवि चेतन जीव को सचेत करता है कि सहज सलिल के बिना पिपासा शान्त नहीं हो सकती : चेनन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ । सहज सलिल बिन कहहु क्यउ उसन प्यास बुझइ ||३०|| वस्तुतः आत्मा सर्वव्यापी है तथा उसकी स्थिति शरीर मे भी है । कवि ठीक कबीर की ही शैली में कहता है कि जिस प्रकार पत्थर में सुवर्ण होता है, पुष्प में सुगन्ध होती है, तिल में तेल होता है, उसी प्रकार आत्मा प्रत्येक घट में विद्यमान रहता है । किन्तु जीव पौद्गलिक पदार्थों में इतना फँस जाता है कि वह इस सत्य से अवगत नहीं हो पाता। वह शरीर और आत्मा में अन्तर ही १. 'परमार्थ दोहाशतक' को श्री नाथूराम प्रेमी ने 'जैन हितैषी' में 'रूपचन्द शतक' ( कविवर रूपचन्द कृत परमार्थी दोधक वा दोहा ) नाम से प्रकाशित किया है। इस प्रति के अन्त में लिखा है ' इति रूपचन्द कृत दोहरा परमार्थिक समाप्त' देखिए - जैन हितैषी, अंक ५-६, पृ० १२ से २१ तक । २. पाहन माहि सुवर्ण ज्यउँ, दाद विषय अंत भोजु | तिम तुम व्यापक घट विषइ, देखहु किन करि खोजु | ५४|| पुष्पन विपइ सुवास जिम, तिलन विपइ जिम तेल । तिम तुम व्यापक घट विषइ, निज जानइ दुहु खेल | ५५ ||
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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