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________________ तृतीय अध्याय बनारसीदास नए पन्थ के प्रवर्तक हों या न हो, जैन समाज में नए विचारों के प्रवर्तक अवश्य हैं | आदिकालीन जैन आचार्यों के तथाकथित सिद्धान्तों के सीमित कठघरे में बन्द रहना आपको पसन्द नहीं था । आप स्वच्छन्दतावादी व्यक्ति थे, प्रत्येक तथ्य को अनुभूति की कसौटी पर कसकर व्यक्त करते थे । आपकी उदारवादी नीति का ही परिणाम है कि आपने अनुवाद कार्य में भी जहाँ एक ओर जैन विद्वानों की पुस्तकों को चुना है, वहाँ दूसरी ओर 'गोरखनाथ की बानी' को भी । काव्य में कलापक्ष की दृष्टि से भी आपका विशेष महत्व है । आप संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे । परिनिष्ठित व्रज भाषा के अतिरिक्त अवधी, खड़ी बोली, ढुंढारी और अपभ्रंश पदावली भी आपकी रचनाओं में देखी जा सकती है। खड़ी बोली का काव्य में प्रयोग करनेवाले आप प्रथम जैन कवि हैं । 'अर्धकथानक' में स्थान-स्थान पर सरल और बोलचाल की खड़ी बोली की शब्दावली पायी जाती है । श्री नाथूराम प्रेमी ने आपकी भाषा के विषय में लिखा है कि 'इस रचना (अर्ध कथानक ) से हमें इस बात का आभास मिलता है कि उस समय, अब से लगभग तीन सौ वर्ष पहले, बोलचाल की भाषा किस ढङ्ग की थी और जिसे आजकल खड़ी बोली कहा जाता है, उसका प्रारम्भिक रूप क्या था ।" कुछ उदाहरण देखिए : जैसा घर तैसी नन्हसाल X Xx पकरे पाइ लोभ के लिए आगे और न भाड़ा किया ८५ X X कहीं जु होता था सो हुआ । ' बनारसी विलास' में भी इसी प्रकार का एक पद मिलता है, जिसमें खड़ी बोली का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । एक उद्धरण पर्याप्त होगा :― केवली मथित वेद अन्तर गुपत भए, जिनके शब्द में अमृत रस चुवा है । अब ऋगवेद यजुर्वेद साम अथर्वण, इन्ही का परभाव जगत में हुआ है ॥ कहत 'बनारसी' तथापि में कहूँगा कछु, सही समकेंगे जिनका मिध्यात मुवा है । मतवारो मूरख न माने उपदेश जैसे, उलुवा न जाने किस ओर भानु उवा है ||२|| ( बना० वि०, पृ० ६१ ) इसके अतिरिक्त तत्कालीन प्रचलित अरबी फारसी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी आपके काव्य में यत्र-तत्र मिल जाता है । वनारसीदास कवि के साथ १. श्री कामता प्रसाद जैन - हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास पृ० १४० से उद्धृत |
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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