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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 215 हम द्वारा सेवित किये जाते हुए आनन्द का उपभोग कीजिए। यह सुनकर चमरेन्द्र ने कहा- तुम सब उससे भयभीत हो रहे हो तो यहीं रहो। मैं अकेला ही उससे युद्ध करने निश्चय ही जाऊँगा क्योंकि सुरों और असुरों का एक ही इन्द्र होना चाहिए। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। इस प्रकार उग्र गर्जना करते हुए आकाश में उड़ने का परिपूर्ण मानस बना लिया। उसी क्षण मन में कुछ विवेक जागृत हुआ कि ये मेरे सामानिक देव शक्रेन्द्र को महान् शक्तिमान मानते हैं, तब कदाचित् शक्रेन्द्र वैसा शक्तिमान हो भी सकता है क्योंकि ये मेरा जरा भी अहित नहीं चाहते। अतः कदाचित मेरी पराजय भी हो जाये तो इससे पहले मुझे एक उपाय करना चाहिए कि शक्रेन्द्र से अधिक बलशाली की शरण लेकर चले जाना चाहिए। ऐसा चिन्तन कर उसने उपयोग लगाया तो उसका उपयोग सुसुमापुर में प्रतिमा धारण करने वाले प्रभु महावीर की ओर गया। उसने सोचा, ये शक्र के भी पूज्य हैं अतः इन्हीं की शरण लेकर मुझे सौधर्म कल्प जाना चाहिए। ऐसा निश्चय कर चमरेन्द्र तुखालय नामक स्वयं की आयुधशाला में गया । वहां मृत्यु के हाथ के समान एक मुद्गर लिया और उसे तीन बार ऊँचा, नीचा, तिरछा घुमाया और चमरचंचा से निकल कर क्षणभर में सुसुमापुर प्रभु वीर की सन्निधि में पहुंच गया। वहां परिघ नामक आयुध को दूर रखकर, तीन बार प्रदक्षिणा करके, प्रभु को नमन करते हुए इस प्रकार बोला, निवेदन किया- भगवन्! आपके अतिशय प्रभाव से शक्रेन्द्र पर विजय प्राप्त करूंगा ही। वह इन्द्र मेरे मस्तक पर बैठकर अतिगर्व से शासन कर रहा है। उसका यह कार्य मुझे किंचित भी रुचिकर नहीं है इसलिए मैं आपकी शरण ग्रहण कर उस पर विजय प्राप्त करने जा रहा हूं। ऐसा कहकर परिघ आयुध को लेकर ईशान कोण में आया । उत्तर वैक्रिय से अपना एक लाख योजन का शरीर बनाया। सुविस्तृत श्याम वर्ण शरीर ऐसा दिखाई देने लगा मानो कोई मूर्तिमान आकाश हो अथवा नन्दीश्वर अंजन गिरि हो। वह भयंकर मुख वाला. श्यामल चपल केशराशि वाला, मुख की फुफकार से उछलती ज्वालाओं से व्योम को व्याप्त करने वाला, भुजदण्ड को हिलाने मात्र से ग्रह-नक्षत्र को नीचे गिराने वाला, पर्वतचूलिका के अग्रभाग को विधुर बनाने वाला, भयंकर
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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